Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 01
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 452
________________ कम से कम एक बात तो कहते हो ईश्वर से कि 'मैं स्वतंत्र हं।' यह आदमी जो सदा आत्मघात के महागर्त के समीप जीता है, सबसे निम्न है,सबसे बड़ा पापी है। अस्तित्ववाद में, जिसका कि उपदेश देता है सार्च, ये शब्द बड़े अर्थपूर्ण हो गये हैंसंत्रास, ऊब, उदासी। उन्हें होना ही है अर्थपूर्ण क्योंकि ऐसा आदमी तीव्र पीड़ा में, ऊब में रहेगा ही। एक प्रतिशत विधायकता की जरूरत रहती है। वह हां कहेगा ऊब को, आत्मघात को, पीड़ा को। केवल इन्हीं बातों के लिए ही उसे हां कहने की जरूरत पड़ती है। ऐसा है आधुनिक आदमी जो अंतिम किनारे के और और निकट आ रहा है। दूसरे शिखर पर अस्तित्व होता है आध्यात्मिक व्यक्ति का। पहला, प्रथम छोर पर पहुंच रहा व्यक्ति पापी है, पतित है। दूसरा शिखर है-निन्यानबे प्रतिशत विधायक तत्व, एक प्रतिशत निषेधात्मकता। वही है आध्यात्मिक व्यक्ति। वह हां कहता है हर चीज को। उसके पास केवल एक 'नहीं' होती है और वह नहीं होती 'नहीं' के विरुद्ध ही; बस इतना ही नकार। वरना वह एक हां है। लेकिन क्योंकि समग्र 'हां' का अस्तित्व हो ही नहीं सकता, तो उसे जरूरत पड़ती है नहीं कहने की। ऐसा आदमी बहत चीजें प्राप्त कर लेता है क्योंकि विधायक मन तुम्हें लाखों चीजें दे सकता है-यह आदमी प्रसन्न रहेगा,अकंप, सहज, शांत और मौन रहेगा और इन्हीं बातों के कारण मन खिलेगा और अपनी सारी विधायक गुणवत्ताएं दे देगा उसे। उसके पास विशिष्ट शक्तियां हो जायेंगी। वह तुम्हारे विचारों को पढ़ सकता है, वह तुम्हें स्वास्थ्य दे सकता है। उसका आशीष एक शक्ति बन जायेगा। उसके निकट होने मात्र से ही तुम्हें लाभ पहुंचेगा। सूक्ष्म उपायों से वह आशीष दे रहा होता है। सारी सिदधिया-वे सारी शक्तियां जिनकी बात योग करता है, और आगे पतंजलि बात करेंगे जिनके बारे में वे उसे आसानी से उपलब्ध होंगी। वह चमत्कारों से भरा व्यक्ति होगा; उसका स्पर्श चमत्कारिक होगा। कोई भी चीज संभव होगी क्योंकि उसके पास निन्यानबे प्रतिशत विधायक मन होता है। विधायकता एक सामर्थ्य है, एक शक्ति। वह बहत शक्तिशाली होगा। लेकिन फिर भी वह संबोधि को उपलब्ध तो नहीं है। और वास्तविक बुद्ध की अपेक्षा इस व्यक्ति को तुम आसानी से बुद्ध कहना चाहोगे। क्योंकि संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति तो तुम्हारे पार ही चला जाता है। तुम नहीं समझ सकते उसे; वह अगम्य हो जाता है। वस्तुत: संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति के पास कोई शक्ति नहीं होती क्योंकि कोई मन नहीं होता उसके पास। वह चमत्कारी नहीं होता। उसका कोई मन नहीं, वह कुछ कर नहीं सकता। वह गैर-क्रियात्मक होने का शिखर है। चमत्कार घट सकते हैं उसके पास। लेकिन वे घटते हैं तुम्हारे मन के कारण ही, उसके कारण नहीं; और यही भेद होता है। एक आध्यात्मिक व्यक्ति चमत्कार कर सकता है; एक प्रज्ञा-पुरुष ऐसा नहीं कर सकता। चमत्कार संभव होते हैं; लेकिन वे घटेंगे तुम्हारे ही

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