Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 01
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 424
________________ जिस घड़ी दूसरे कुत्तों ने सुना कि कोई एक शांति भंग कर चुका है, वे बोले, अब कोई समस्या न रही। वे जानते न थे कि नेता ने ऐसा किया था। उन्होंने सोचा कि उन्हीं में से किसी एक ने तोड़ दिया है वचन। तो अब उनके लिए असंभव था स्वयं को रोके रखना। सारे शहर में भौंकने की आवाज गज उठी! वह नेता बाहर आया और उसने उपदेश देना शुरू कर दिया। __ यह होगी हालत तुम्हारे सामाजिक क्रांतिकारियों की, सुधारकों की, गांधीवादियों की, मार्क्सवादियों की और भी दूसरों की सारे वादों की। यदि यह संसार वास्तव में ही बदल जाये तो वे बहुत कठिनाई में पड़ जायेंगे। यदि संसार वस्तुत: उनके मन के आदर्श लोक की बातों को और परिकल्पनाओं को परिपूर्ण कर दे, तो वे आत्महत्या कर लेंगे या पागल हो जायेंगे। या, वे बिलकुल उल्टी बात सिखानी शुरू कर देंगे, एकदम विपरीत; ठीक उसके उल्टी जो कि वे अभी सिखा रहे होते वे मेरे पास आते है और कहते है, 'कैसे आप लोगों से कह सकते हैं शांत होने के लिए जब कि संसार इतने दुख में है?क्या वे सोचते हैं कि पहले दुख मिटा देना होता है और फिर लोग शांत होंगे? नहीं, यदि लोग शांत होते हैं तो ही दुख मिटाया जा सकता है, क्योंकि केवल शांति ही दुख मिटा सकती है। दुख एक दृष्टिकोण है। इसका संबंध भौतिक अवस्थाओं से कम होता है, ज्यादा संबंध होता है अंतर्मन से, अंतर्चेतना से। एक गरीब आदमी भी प्रसन्न हो सकता है और तब बहुत सारी चीजें एक क्रम में घटनी शुरू हो जाती है। जल्दी ही वह दरिद्र न रहेगा। कैसे कोई दरिद्र हो सकता है जब वह खुश हो तो? जब तुम प्रसन्न होते हो, तो सारा संसार तम्हारे साथ सम्मिलित होता है। जब तुम अप्रसन्न होते हो हर चीज गलत हो जाती है। तुम तुम्हारे चारों ओर ऐसी स्थिति निर्मित कर लेते हो जो तुम्हारी अप्रसन्नता को वहां बने रहने देने में मदद करती है। यह मन का गति-विज्ञान है। यह एक स्वविनाशी ढंग है। तुम दुखी अनुभव करते हो, तब ज्यादा दुख तुम्हारी ओर खिंचा चला आता है। जब ज्यादा दुख खिंचा चला आता है तो तुम कहते हो, 'कैसे मैं शांत हो सकता हूं? इतना दुख है!' तब और भी दुख तुम्हारी ओर खिंच जाता है। तब तुम कहते हो,' अब यह असंभव है। और वे जो कहते है कि वे आनंदित है, जरूर झूठ बोलते होंगे। वे बुद्ध, वे कृष्ण-वे जरूर झूठे होंगे। क्योंकि जो वे कहते है, वह कैसे संभव हो सकता है इतने ज्यादा दुखों के बीच मे'। तब तुम एक स्व-पराजयी व्यवस्था में होते हो। तुम दुख को आकर्षित करते हो और न केवल तुम इसे आकर्षित करते हो अपने लिए बल्कि जब एक व्यक्ति दुखी होता है, तो वह दूसरों की भी मदद करता है दुखी होने में। क्योंकि वे भी छू है तुम्हारी भांति ही। तुम्हें दुख-तकलीफ में देखकर, वे सहानुभुति प्रकट करते है। जब वे सहानुभूति प्रकट करते है, तो वे खुले हुए हो जाते है। तो यह ठीक ऐसा है जैसे कि एक बीमार व्यक्ति सारे समूह को संदूषित कर देता है।

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