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पक्षियों का चहचहाना, ये सब तुम्हारे आसपास बना रहता है। यह तुम्हें स्पर्श करता है। तुम इन्हें महसूस कर सकते हो। प्रथम अवस्था वाले व्यक्ति के साथ, 'मृदु' के साथ, तुम कुछ महसूस न करोगे। तुम केवल एक रिक्तता अनुभव करोगे - स्व मरुस्थल जैसा अस्तित्व; और पहले प्रकार का आदमी तुम्हें चूस लेगा। यदि तुम उसके निकट जाओगे तो तुम अनुभव करोगे कि तुम खाली हो चुके हो। कोई तुम्हें चूसता रहा है क्योंकि वह मस्स्थल है उसके साथ तुम अपने प्राण रूखे-सूखे हुए अनुभव करोगे, और तुम भयभीत हो जाओगे ।
ऐसा तुम बहुत संन्यासियों के प्रति अनुभव करोगे। यदि तुम उनके निकट जाओ, तुम अनुभव करोगे वे तुम्हें सोख रहे हैं - चाहे अनजाने तौर पर ही। उन्होंने प्रथम अवस्था प्राप्त कर ली होती है। वे रिक्त हो चुके होते हैं और वही रिक्तता सूराख बन जाती है। तुम स्वचालित रूप से इसके द्वारा चूस लिये जाते हो।
तिब्बत में ऐसा कहा जाता है कि यह पहली अवस्था वाला आदमी अगर कहीं मौजूद है, तो उसे नगर में नहीं आने-जाने देना चाहिए। जब तिब्बत के लामा प्रथम अवस्था की प्राप्ति कर लेते हैं, उनके मठों से बाहर जाने का निषेध कर दिया जाता है। क्योंकि यदि ऐसा आदमी किसी के निकट जाये तो वह उसे सोख लेता है। वह सीखना उसके नियंत्रण से परे होता है; वह इस बारे में कुछ नहीं कर सकता। वह मरुस्थल की भांति होता है जहां कोई चीज जो निकट आती है, सोख ली जाती है, शोषित हो जाती है।
प्रथम अवस्था के लामा को यह अनुमति नहीं दी जाती कि वृक्ष को हुए क्योंकि ऐसा देखा गया कि तब वृक्ष मर जाते हैं। हिमालय में भी, हिदू संन्यासियों को अनुमति नहीं है वृक्षों को छूने की क्योंकि वृक्ष मर जायेंगे। वे सोखने की घटना होते हैं। इस प्रथम अवस्था वाले लामा को अनुमति नहीं दी जाती किसी के विवाह में सम्मिलित होने की क्योंकि वह एक विध्वंसात्मक शक्ति बन जायेगा। वह किसी को आशीष देने को अनुमत नहीं होता क्योंकि वह दे नहीं सकता आशीष । वह आशीष दे भी रहा हो, तो वह सोख रहा होता है। शायद तुम इसे न जानते हो, लेकिन मठ इन प्रथम अवस्थागत लामाओं, संन्यासियों, साधुओं के लिए निर्मित किये गये थे जिससे कि वे अपने बंद संसार में जी सकें। उनको बाहर आने की अनुमति न थी जब तक वे द्वितीय अवस्था प्राप्त नहीं कर लेते, तो वे किसी को आशीष देने को अनुमत नहीं होते ।
द्वितीय श्रेणी का खोजी जिसने अपना दो-तिहाई लगा दिला होता है, शांतिपूर्ण, प्रशांत बन जाता है। यदि तुम उसके निकट जाते हो, वह तुममें प्रवाहित हो जाता है; वह बांटता है। अब वह मरुस्थल नहीं बना रहता; वह हरा-भरा जंगल होता है। बहुत चीजें उसमें पहुंच रही होती हैं-मौन रूप से, शांति से, सहज प्रशांत रूप से तुम इसे अनुभव करोगे। लेकिन ध्येय यह भी नहीं है, और बहुत वहीं अटके रहते हैं। मात्र मौन होना पर्याप्त नहीं है। यह किस प्रकार की उपलब्धि है मात्र शांत हो जाना? यह मृत्यु की भांति हुआ कोई उत्सव नहीं, कोई आनंद नहीं।