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या अगर तुम असंभव पाते हो ऐसी स्थिर अवस्था में बने रहना, तो अपने कमरे में चले जाओ, दरवाजा बंद कर लो, अपने सामने एक तकिया रख लो, और तकिये को मारो पीटो तकिये पर क्रोध करो। जब तुम तकिये को पीट रहे होते हो, तकिये पर क्रोध कर रहे होते हो और पागल हुए जाते हो, तब जरा ध्यान से देखना कि तुम क्या कर रहे हो क्या हो रहा है, ढांचा अपने को कैसे दोहरा रहा
है।
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यदि तुम निश्चेष्ट हो सकते हो, वह सबसे अच्छा है। यदि तुम अनुभव करते हो यह कठिन कि तुम खिंचे जा रहे हो, तब कमरे में चले जाओ और तकिये पर क्रोध कर लो। तकिये के साथ तुम्हारा पागलपन तुम्हारे सामने पूरी तरह प्रकट हो जायेगा। वह साफ दिख जायेगा । और तकिया प्रतिक्रिया नहीं करने वाला, इसलिए तुम ज्यादा आसानी से देख सकते हो कोई खतरा नहीं है, सुरक्षा की कोई समस्या नहीं है। तुम ध्यान से देख सकते हो। धीरे-धीरे, क्रोध का चढ़ना होता है और फिर क्रोध का ढलना होता है।
दोनों की लय पर ध्यान दो और जब तुम्हारा क्रोध निढाल हो जाता है और तुम तकिये को अब और पीटने जैसा अनुभव नहीं करते, या तुमने हंसना शुरू कर दिया है या तुम हास्यास्पद अनुभव करते हो, तब अपनी आंखें बंद कर लो, जमीन पर बैठ जाओ, और उस पर ध्यान करो जो घटित हुआ है। क्या तुम अब भी उस व्यक्ति के लिए क्रोध अनुभव करते हो जिसने तुम्हारा अपमान किया है, या क्या क्रोध उस तकिये के ऊपर फेंक दिया गया है? तुम अनुभव करोगे, एक स्पष्ट शांति तुम पर बरस रही है। जो व्यक्ति संबंधित है, तुम अब उस पर और क्रोध अनुभव न करोगे। बल्कि हो सकता है तुम उसके लिए करुणा भी अनुभव करो ।
एक युवा अमरीकी लड़का दो वर्ष पहले यहां था वह अमरीका से भाग आया था एक समस्या, एक आवेश के कारण। वह लगातार सोचता रहा था अपने पिता की हत्या करने की बात। पिता खतरनाक आदमी रहा होगा, उसने लड़के को बहुत ज्यादा दबाया होगा। अपने सपनो में बेटा अपने पिता की हत्या करने की सोचता रहा था, और अपने दिवास्वप्नों में भी वह उनकी हत्या करने की सोचता रहा था। वह घर से भागा था तो केवल इसलिए कि वह अपने पिता के पास नहीं रहेगा। वरना किसी दिन कुछ घटित हो सकता था। पागलपन मौजूद था, वह किसी क्षण फूट सकता था।
वह लड़का यहां मेरे पास था। मैंने उससे कहा, 'अपनी भावनाओं का दमन मत करो।' मैने उसे तकिया दिया और कहा, 'यह तुम्हारे पिता हैं। अब जो कुछ तुम चाहते हो, करो।' पहले तो उसने हंसना शुरू कर दिया, पागल ढंग का हंसना । वह बोला, 'यह बेतुका लगता है।' मैंने उससे कहा, 'होने दो बेतुका। अगर यही है मन में, तो इसे बाहर आने दो पंद्रह दिन तक लगातार वह तकिये को पीटता रहा था और चीरता - फाड़ता रहा था, और जो कुछ वह चाहता था करता रहा। सोलहवें दिन वह चाकू लेकर आया। मैंने यह लाने को नहीं कहा था उससे इसलिए मैंने उससे पूछा, 'यह चाकू क्यों?'