________________ और बोलना आदमी को उस हालत तक ले आया है, जो आज यहां है। सतत बकबक करता मन किसी सुख को नहीं आने देता, सुख की किसी संभावना को नहीं आने देता, क्योंकि केवल एक मौन चित्त भीतर देख सकता है। केवल मौन चित्त ही सुन सकता है उस मौन को, उस मस्ती को जो हमेशा वहां गुनगुना रही है। वह इतनी सूक्ष्म है कि चित्त के शोरगुल सहित तुम उसे सुन नहीं सकते। केवल संभोग में यह शोरगुल कई बार थम जाता है। मैं कहता हूं कई बार, क्योंकि अगर तुम कामवासना के भी अभ्यस्त हो जाते हो, जैसे पति और पत्नियां हो जाते हैं, तब शोरगुल कभी नहीं थमता। सारी क्रिया स्वचालित हो जाती है और मन अपने से ही चलता रहता है। तब कामवासना भी एक ऊब बन जाती है। किसी चीज का तुम्हें आकर्षण होता है अगर वह तुम्हें झलक दे सकती हो। वह झलक बाहर से आ रही जान पड़ सकती है, लेकिन वह हमेशा भीतर से आती है। बाहरी हिस्सा तो केवल एक दर्पण हो सकता है। जब भीतर से प्रवाहित हो रही प्रसन्नता बाहर से प्रतिबिंबित होती है, वह सुख कहलाती है। यह पतंजलि की परिभाषा है। भीतर से बहने वाली प्रसन्नता बाहर से प्रतिबिंबित होती है, बाहरी हिस्सा दर्पण की तरह कार्य कर रहा है। यदि तुम सोचते हो कि यह प्रसन्नता बाहर से आ रही है, तो यह एंद्रिक सुख कहलाती है। हम एक गहन प्रसन्नता की खोज में हैं, ऐंद्रिक सुख की खोज में नहीं। इसलिए जब तक तुम्हें इस प्रसन्नता की झलकियां न मिल सकें, तुम अपनी भोगविलास को छूनेवाली तलाश समाप्त नहीं कर सकते। आसक्ति का अर्थ है. ऐंद्रिक सुख, भोग-विलास की खोज। बोधपूर्ण प्रयास की आवश्यकता है। तो जब कभी तुम अनुभव करो कि एक ऎद्रिक सुख का क्षण है, तो उसे ध्यानपूर्ण अवस्था में रूपांतरित कर दो। जब कभी तुम्हें प्रतीत हो कि तुम सुख का अनभव कर रहे हो, तम प्रसन्न, आनंदपर्ण हो, तब अपनी आंखें बंद कर लेना, भीतर झांकना और जानना कि यह कहां से आ रहा है। यह क्षण मत गवाओ, यह कीमती है। अगर तुम सचेतन नहीं होते तो तुम शायद सोचना जारी रखो कि यह बाहर से आता है और यही संसार का श्रम है। यदि तुम सचेतन और ध्यानपूर्ण होते हो, यदि तुम वास्तविक स्रोत की खोज करते हो तो कभी न कभी तुम जान जाओगे कि यह भीतर से प्रवाहित हो रहा है। एक बार तम जान लो कि यह सदा भीतर से प्रवाहित होता है, कि यह वह कुछ है जो तुम्हारे पास पहले से ही है, तब भोगविलास-लोलुपता गिर जायेगी, और यह पहला चरण होगा वैराग्य का। तब तुम खोज नहीं रहे होते; लालायित नहीं हो रहे होते। तो तुम इच्छाओं को मार नहीं रहे हो, तुम इच्छाओं से लड़ नहीं रहे हो। तुमने एकदम कुछ ज्यादा बड़ा पा लिया है, इसलिए इच्छाएं अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं लगती। वे निस्तेज हो जाती हैं।