________________ करेगी। यह बात तुम्हारे भीतर एक तनाव निर्मित कर देगी; यह आनंद की अपेक्षा एक चिंता बन जायेगी। जहां तुम तुम्हारी समग्रता में होते हो, वहां आनंद होता है; जहां तुम केवल हिस्से में होते हो, तो वहां चिंता होती है,क्योंकि तब तुम बंट जाते हो और उससे तनाव पैदा होता है। दो हिस्से अलग ढंग से चल रहे हैं। तब तुम कठिनाई में होते हो। दूसरे जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं वे श्रद्धा वीर्य (ऊर्जा), स्मृति समाधि (एकाग्रता) और प्रज्ञा ('विवेक) के द्वारा उपलब्ध होते हैं। शब्द जो है, यह है स्मरण-जिसे गुरजिएफ कहते हैं, आत्मस्मरण। यह है यह 'स्मृति' स्मृति। तुम अपने को स्मरण नहीं करते। हो सकता है तुम लाखों चीजों का स्मरण करो, लेकिन तुम निरंतर भूलते चले जाते हो स्वयं को, जो तुम हो। गुरजिएफ के पास एक विधि थी। उसने इसे पाया पतंजलि से। और वस्तुत:, सारी विधियां पतंजलि से चली आती हैं। वे विशेषज्ञ थे विधियों के। स्मृति है स्मरण-जो कुछ तुम करो उसमें स्व-स्मरण बनाये रहना। तुम चल रहे हो-गहरे में स्मरण रखना कि 'मैं चल रहा हूं कि 'मैं हूं।' चलने में ही खो मत जाना। चलना भी है-वह गति, वह क्रिया; और वह आंतरिक केंद्र भी है। गति, क्रिया और आंतरिक केंद्र-मात्र सजग, देखता हआ साक्षी। लेकिन मन में दोहराओ मत कि मैं चल रहा हूं। अगर तुम दोहराते हो, तो वह स्मरण नहीं है। तुम्हें निःशब्द रूप से जागरूक होना है कि 'मैं चल रहा हूं मैं खा रहा हूं मैं बोल रहा हूं मैं सुन रहा है। जो कुछ करते हो तुम, उस भीतर के 'मैं' को भूलना नहीं चाहिए, यह बना रहना चाहिए यह अहं-बोध नहीं है। यह आत्म-बोध है। मैं-बोध अहंकार है; आत्मा का बोध है अस्मिताशुद्धता, सिर्फ मैं हूं इसका होश। साधारणत: तुम्हारी चेतना किसी विषय वस्तु की ओर लक्षित हुई रहती है। तुम मेरी ओर देखते हो; तुम्हारी संपूर्ण चेतना मेरी ओर बह रही है एक तीर की भांति। तो तुम मेरी ओर लक्षित हो। आत्म-स्मरण का अर्थ है, तुम्हारे पास द्विलक्षित तीर होगा। इसका एक हिस्सा मुझे देख रहा हो, दूसरा हिस्सा अपने को देख रहा हो। द्वि-लक्षित -तीर है स्मृति, आत्म-स्मरण। यह बहुत कठिन है, क्योंकि विषय वस्तु को स्मरण रखना और स्वयं को भूलना आसान होता है। विपरीत भी आसान है-स्वयं को स्मरण रखना और विषय को भूल जाना। दोनों आसान हैं; इसीलिए वे जो बाजार में होते, संसार में होते, और वे जो मंदिरों मठों में होते, संसार से बाहर