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लेकिन ये युक्तियां है तुम्हें मतवाला बना देने की। तुम्हें बिलकुल शिथिल नहीं होने दिया जा सकता। जब कभी भविष्य होता है, तुम्हें ठीक लगता है। तब मन परमात्मा की आकांक्षा कर सकता है। और तुम्हारी कोई गलती नहीं है। यह घटना ही ऐसी है कि यह समय लेगी! यह बात एक बहाना बन जाती है।
पतंजलि के साथ तुम स्थगित कर सकते हो, तैयार हो सकते हो, झेन के साथ तुम स्थगित नहीं कर सकते। अगर तुम स्थगित करते हो, तो यह तुम ही हो जो स्थगित कर रहे हो, परमात्मा नहीं। पतंजलि के साथ तुम स्थगित कर सकते हो, तैयार हो सकते हो, क्योंकि परमात्मा का स्वभाव ही ऐसा है कि वह केवल क्रमिक मार्गों द्वारा पाया जा सकता है। वह बहुत-बहुत कठिन है। इसीलिए कठिनाई के साथ तुम सुविधा अनुभव करते हो। और यही है विरोधाभास : जो कहते हैं कि यह आसान है उनके साथ तुम असुविधा अनुभव करते हो; जो कहते हैं कि यह कठिन है उनके साथ तुम सुविधा अनुभव करते हो। होना तो उलटा चाहिए।
लेकिन दोनों सत्य हैं, इसलिए यह तुम पर निर्भर करता है। अगर तुम स्थगित करना चाहते हो, तैयार होना चाहते हो, तो पतंजलि श्रेष्ठ है। अगर तुम इसे यहीं और अभी चाहते हो, तो झेन को सुनना होगा और तुम्हें निर्णय लेना होगा। क्या तुम बहुत तात्कालिकता में हो? क्या तुमने पर्याप्त दुख नहीं उठा लिया है? क्या तुम और दुख उठाना चाहते हो? तो पतंजलि श्रेष्ठ हैं। तुम पतंजलि के पीछे चलो। तब कहीं दूर, आगे भविष्य में तुम आनंद प्राप्त कर लोगे।
पर यदि तुमने पर्याप्त दुख उठाया है, तो यह अभी घट सकता है। और यही होती है परिपक्वता-समझ लेना कि तुमने पर्याप्त दुख उठा लिया है।
और तुम हेराक्लतु और झेन को. 'बच्चों जैसा' कह देते हो।'बाल-शिक्षा, किंडरगार्टन न;' मैने काफी दुख उठा लिया इसके बोध से भर जाना ही एकमात्र परिपक्वता है। अगर तुम ऐसा अन् करते हो, तो एक तात्कालिकता निर्मित हो जाती है; तब अग्रि निर्मित हो जाती है। कुछ कर लेना
लकल अभी! तम इसे स्थगित नहीं कर सकते। स्थगित करने और तैयार होने में कोई अर्थ नहीं। तुम इसे काफी स्थगित कर चुके हो। लेकिन यदि तुम भविष्य चाहते हो, अगर तुम थोड़ा और दुख उठाना चाहते हो,अगर तुम नरक के साथ आसक्त हो गये हो, अगर तुम एक दिन और चाहते हो वैसा ही बने रहने को, या अगर तुम सिर्फ कुछ चाहते हो मामूली रूपांतरण, तो पतंजलि के पीछे हो लेना।
इसीलिए पतंजलि कहते हैं, 'यह करो, वह करो-धीरे-धीरे। एक चीज करो, फिर दूसरी चीज करो। 'लाखों चीजें हैं जो करनी होती हैं। और उन्हें तुरंत किया नहीं जा सकता। तो तुम स्वयं को थोड़ा- थोड़ा परिवर्तित किये चले जाते हो। आज तुम प्रतिज्ञा करते हो कि तुम अहिंसात्मक रहोगे; कल तुम दूसरी प्रतिज्ञा करोगे। फिर परसों तुम ब्रह्मचारी बन जाओगे, और इस तरह ये बातें