________________ पहली बार तो वे पागल से ही थे। यह सही चीज है करने की, इसी तरह ध्यान किया जाता है। यह शाखों में लिखा हुआ है। इसी तरह से व्याख्या की गयी है। ' किंतु फिर भी उनमें एक तीसरा वर्ग था जिसने कहा, 'हम ध्यान के बारे में कुछ भी नहीं जानते। कैसे निर्णय दे सकते हैं हम?' तब, फिर कुछ महीनों बाद वह टोली आयी। अब वहां कोई न था। केवल वे सद्गुरु बैठे थे और मुसकुरा रहे थे। सारे शिष्य गायब हो गये थे। अत: उन्होंने पूछा, 'क्या हो रहा है? पहली बार हम आये तो वहा पागल भीड़ थी, और हमने सोचा कि यह व्यर्थ था और आप लोगों को पागल किये दे रहे थे। अगली बार हम आये तो वत् बहत अच्छा था। लोग ध्यान कर रहे थे। कहां चले गये हैं वे सब?' सद्गुरु ने कहा, 'काम हो चुका है, इसलिए शिष्य यहां नहीं रहे। और मैं प्रसन्नतापूर्वक मुसकुरा रहा हूं क्योंकि घटना घट चुकी। और तुम हो नासमझ। जानता हूं मैं। देखता मैं भी रहा हूं केवल तुम्ही नहीं। मैं जानता हूं तुम्हारे बीच जो विवाद चल रहे थे, और जो तुम पहली बार और दूसरी बार सोच रहे थे, 'जलालुद्दीन ने कहा, 'वह कोशिश जो तुमने तीन बार यहां आने में की वह काफी थी तुम्हारे ध्यानी बनने के लिए। और जिस वादविवाद में तुम पड़े थे, उसमें जो ऊर्जा तुमने लगायी उतनी ऊर्जा काफी थी तुम्हें शांत बना देने को। और उसी अवधि मे वे शिष्य जा चुके हैं, और तुम उसी स्थान पर खडे हुए हो। भीतर आओ। बाहर से मत देखो।' वे बोले, 'हां, इसीलिए तो हम फिर-फिर आ रहे हैं देखने को, कि क्या घट रहा है। जब हम निश्चित हो जायें तो ठीक है। अन्यथा हम प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते। ' चालाक लोग कभी प्रतिबदध नहीं होना चाहते, लेकिन क्या कोई जीवन होता है बिना प्रतिबद्धता का? लेकिन चालाक लोग सोचते है कि प्रतिबद्धता बंधन है। लेकिन क्या कोई स्वतंत्रता होती है बिना बंधन की? पहले तुम्हें संबंध में उतरना होता है; केवल तभी तुम उसके पार जा सकते हो। पहले तम्हें गहरी प्रतिबदधता में उतरना होता है-गहराई से गहराई का, हृदय से हृदय का संबंध, और केवल तब तम इसके पार हो सकते हो। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अगर तुम बाहर ही खड़े रहो, और देखते रहो, तो तुम कभी मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। मंदिर प्रतिबद्धता है। और फिर कोई संबंध नहीं हो सकता। गुरु और शिष्य एक प्रेम संबंध में होते हैं। यह उच्चतम प्रेम है, जो संभव है। जब तक कि संबंध न हो, तम विकसित नहीं हो सकते। पतंजलि कहते हैं, 'पहली बात है श्रद्धा और दूसरी ऊर्जा-प्रयास।' तुम्हारी सारी ऊर्जा को ले आना होता है, एक हिस्सा काम न देगा। यह घातक भी हो सकता है अगर तुम केवल आशिक रूप से भीतर आओ और आशिक रूप से बाहर भी बने रहो। क्योंकि यह बात तुम्हारे भीतर एक दरार पैदा