________________ किसी ने रमण महर्षि से पूछा, 'मुझे क्या सीखना होगा मौन होने के लिए स्वयं को जानने के लिए?' कहा गया है कि रमण महर्षि ने कहा,' अंतर-आला तक पहुंचने के लिए तुम्हें कोई चीज सीखने की जरूरत नहीं। तुम्हें अनसीखा करने की जरूरत है; सीखना मदद न देगा। यह मदद करता है बाहर गति करने में मदद तो करेगा अनसीखा करना।' जो कुछ तुमने सीखा है, उसे अनसीखा करो, उसे भूलो, गिरा दो उसे। भीतर बढ़ो बालसुलभ निदोषपूर्ण ढंग से। चालाकी और होशियारी के साथ नहीं, बल्कि बच्चे जैसी आस्था और निर्दोषता के साथ। इस भाषा में मत सोचो कि कोई तुम पर आक्रमण करने वाला है। कोई नहीं है। अत: असुरक्षित मत अनुभव करो और प्रतिरक्षा का कोई इंतजाम मत करो। बने रहो सुभेद्य, ग्रहणशील, खुले। यही है अर्थ श्रद्धा का, आस्था का। बाहर संदेह की आवश्यकता होती है, क्योंकि दूसरा वहां है। वह शायद तुम्हें धोखा देने की सोच रहा हो, इसलिए तुम्हें संदेह करना पड़ता है और संशयी होना होता है। किंतु भीतर संदेह की, अविश्वास की आवश्यकता नहीं होती। कोई नहीं है वहां तुम्हें धोखा देने को। जैसे तुम हो, बस वैसे ही वहां रह सकते हो। हर कोई यह योद्धा जैसा भाव भीतर भी ले जाता है, लेकिन इसकी जरूरत नहीं है। यह एक बाधा है, सबसे बड़ी बाधा। इसे बाहर छोड़ो। और तुम इसे सूत्र बना सकते हो याद रखने का कि जो कुछ बाहर आवश्यक है वह भीतर बाधा बनेगा। मैं कहता हूं 'जो कुछ भी! बेशर्त।' भीतर ठीक विपरीत का प्रयास करना होता है। अगर संदेह बाहर मदद करता है वैज्ञानिक अनुसंधान में, तो श्रद्धा भीतर मदद करेगी धार्मिक अन्वेषण में। अगर आक्रामकता बाहर मदद करती है-सत्ता, प्रतिष्ठा और दूसरों के संसार में तो गैर-आक्रामकता भीतर मदद देगी। अगर चालाक, हिसाबी-किताबी मन बाहर मदद करता है तो एक निर्दोष, गैर-हिसाबी किताबी, बच्चों जैसा मन भीतर मदद देगा। इसे खयाल में लेना-जो कुछ मदद देता है बाहरी जगत में, उसका ठीक विपरीत भीतर मदद देगा। तो पढ़ो मेक्यावेली का दि प्रिंस | वह ढंग है बाहरी विजय पाने का। फिर मेक्यावेली के 'दि प्रिंस' के बिलकुल विपरीत करो, और तुम भीतर पहुंच सकते हो। जरा मेक्यावेली को औंधा खड़ा कर दो, और वह लाओत्सु हो जाता है! बस, उसे शीर्षासन में रख दों-सिर के बल। तो अपने सिर पर खड़ा मेक्यावेली पतंजलि बन जाता है। तो पढ़ना 'दि प्रिंस'। यह सुंदर है। सबसे सुनिश्चित कथन, जो संभव है बाहरी विजय के लिए। फिर पढ़ो लाओत्सु की'ताओ तेह किंग' या पतंजलि का 'योग-सूत्र' या बुद्ध का 'धम्मपद' या जीसस का 'सरमन ऑन दि माउंट'। वे तो परस्पर विरोधी ही है। ठीक उल्टे। ठीक विपरीत। जीसस कहते है, 'वे सौभाग्यशाली है जो विनम्र है क्योंकि वे पृथ्वी को विरासत में पायेंगे' -जो विनम्र हैं, निर्दोष,कमजोर। किसी भी अर्थ में प्रबल नहीं। वे कहते हैं, 'सौभाग्यशाली हैं