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मदद कर देता है शारीरिक स्वप्न से। वे ज्यादा स्वस्थ हो जायेंगे। उनका शरीर-गठन इसके द्वारा कुछ लाभ पा लेगा। लेकिन यह व्यायाम ही है। फिर वे मेरे पास आते हैं और कहते हैं, 'कुछ नहीं हो रहा है।'
कुछ नहीं होगा, क्योंकि इस तरह से वे इसे कर रहे हैं, मानो यह कुछ बाहरी चीज है। केवल एक कार्य। वे इसे कुछ ऐसे कर रहे हैं जैसे वे ग्यारह बजे आफिस जाते हैं और पांच बजे आफिस से लौट आते हैं। बिना किसी लगन के ध्यान भवन में जाते हैं। वे एक घंटा ध्यान कर सकते हैं और बिना किसी अंतर लगन के। यह उनके हृदय में नहीं होता।
दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो इसे प्रेमपूर्वक करते हैं। तो यह कुछ करने का प्रश्न नहीं है। यह मात्रात्मक नहीं है, यह गुणात्मक है। यह है कि कितने तुम सम्मिलित हो, कितनी गहनता से तुम इसे प्रेम करते हो, कितने तुम आनंदित होते हो इसमें-उददेश्य को, ध्येय को, परिणाम को नहींमात्र अभ्यास को।
सूफी कहते हैं कि ईश्वर के नाम की पुनरुक्ति, अल्लाह के नाम को दोहराना स्वयं में एक आनंद है। वे दोहराये चले जाते है और वे आनंदित होते हैं यह करके। यह उनकी सारी जिंदगी बन जाता है-नाम को दोहराना मात्र ही।
नानक कहते है, नामस्मरण-नाम को स्मरण करना काफी है। तुम भोजन कर रहे हाए, तुम सोने जा रहे हो, तुम स्नान कर रहे हो और निरंतर तुम्हारा हृदय स्मरण से भरा हुआ है। राम या अल्लाह या जो भी है, तुम तो बस दोहराये जा रहे हों-शब्द की भांति नहीं, बल्कि श्रद्धा की तरह, प्रेम की तरह।
तुम्हारा सारा अस्तित्व भरा हुआ अनुभव करता है। वह इसके साथ कम्पित रहता है। वह
सके बिना जिंदा नहीं रह सकते। और धीरे- धीरे यह बात एक आंतरिक समस्वरता को जन्म देती है, एक संगीत को। तुम्हारा सारा अस्तित्व एक लयबद्धता में डूबने लगता है। एक आनंदोल्लास का जन्म होता है; एक गुनगुनाती अनुभूति, एक मिठास तुम्हें घेर लेती है। तब जो कुछ तुम कहते हो वह अल्लाह का नाम बन जाता है। जो कुछ तुम कहते हो, ईश्वर का स्मरण बन जाता है।
किसी अभ्यास को बिना व्यवधान के और श्रद्धाभरी निष्ठा के साथ धारण कर लो। लेकिन पश्चिमी मस्तिष्क के लिए यह बहुत कठिन होता है। वे अभ्यास को समझ सकते हैं, लेकिन वे श्रद्धापूर्ण निष्ठा को नहीं समझ सकते। वे उस भाषा को पूर्णतया भूल चुके हैं और बिना उस भाषा के, अभ्यास एकदम मरदा होता है।