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ध्येय को आरंभ से ही तुम्हारी दृष्टि में होना पड़ता है। यात्रा का पहला कदम ध्येय के प्रति पूर्णतया समर्पित होना चाहिए,ध्येय की ओर निर्देशित, ध्येय की ओर बढ़ता हुआ। यह शुरू में एक दृढ़ चीज नहीं हो सकती, न ही पतंजलि इसकी आशा रखते हैं। प्रारंभ में तुम समग्र रूप से अनासक्त नहीं हो सकते, लेकिन तुम कोशिश कर सकते हो। वह प्रयास ही तुम्हारी सहायता करेगा।
तुम बहुत बार गिरोगे बार-बार तुम मोह में पड़ जाओगे। और तुम्हारा मन इस तरह का है कि तुम अनासक्ति से भी आसक्त हो जाते हो। तुम्हारा ढांचा बहुत अचेतन है। लेकिन चेष्टा, सचेत चेष्टा, धीरे- धीरे तुम्हें सचेत और जागरूक बना देगी। और एक बार तुम मोह की पीड़ा को अनुभव करने लगे तो प्रयास की कम जरूरत रहेगी। क्योंकि कोई भी दुखी नहीं होना चाहता,कोई अप्रसन्न नहीं होना चाहता।
हम दुखी हैं क्योंकि हम नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं, लेकिन हर मनुष्य में प्रसन्नता के लिए ललक होती है। कोई दुख के लिए लालायित नहीं होता, लेकिन हर कोई दुख का निर्माण कर लेता है। क्योंकि हम नहीं जानते, हम क्या कर रहे हैं। हम इच्छाओं में सरक रहे होते हैं, प्रसन्नता को पाने के उद्देश्य से, लेकिन मन का ढांचा ऐसा है कि हम वस्तुत: दुख की ओर बढते हैं।
बिलकुल प्रारंभ से, जब बच्चा पैदा होता है और फिर पाला-पोसा जाता है, गलत बनावट उसके मन में भर दी जाती है,गलत-मनोवृत्तियां भर दी जाती हैं। कोई उसे गलत बनाने का प्रयत्न नहीं कर रहा है, लेकिन गलत ढांचों वाले लोग चारों ओर हैं। वे कुछ और हो नहीं सकते, वे निस्सहाय
एक बच्चा बिना किसी ढांचे के उत्पन्न होता है। केवल एक गहरी ललक सुख पाने के लिए उपस्थित होती है लेकिन वह नहीं जानता उसे कैसे प्राप्त करे। यह 'कैसे' अशांत है। वह जानता है यही कि इतना भर निश्चित है कि सुख प्राप्त करना ही है। वह इसके लिए जीवन भर संघर्ष करेगा। लेकिन वे साधन, वे विधियां कि उसे कैसे पाया जाये, कहां पाया जाये, उसे कहां जाना चाहिए उसे ढंढने, वह नहीं जानता है। समाज उसे सिखाता है, सुख को किस तरह प्राप्त करना है। और समाज गलत है।
एक बच्चा सुख चाहता है, लेकिन हम नहीं जानते उसे कैसे सिखायें सुखी होना। और जो कुछ भी हम उसे सिखाते हैं वह दुख की ओर जाता हआ मार्ग बन जाता है। उदाहरण के लिए हम उसे सिखाते हैं अच्छा बनने की बात। हम उसे सिखाते हैं, कुछ निश्चित बातें नहीं करना और दूसरी बातें करना-बिना कभी यह सोचे हुए कि वे स्वाभाविक हैं या अस्वाभाविक। हम कह देते हैं, 'यह करो, वह मत करो। लेकिन हमारा' अच्छा' अस्वाभाविक हो सकता है। और यदि जो कुछ हम अच्छे की भांति सिखाते हैं वह अस्वाभाविक हो तो हम दुख का एक ढांचा निर्मित कर रहे होते है।