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रहे थे। महाकाश्यप सोच नहीं रहा था; वह भी देख रहा था। एक यह बात थी जिसने उसे ग्रहण करने योग्य बना दिया।
__दूसरी बात, जिस कारण से महाकाश्यप इसे पाने योग्य हुआ, यह थी कि वह हंस पड़ा था। यदि मौन उत्सव नहीं बन सकता, यदि मौन हंसी नहीं बन सकता, यदि मौन नृत्य नहीं बन सकता, यदि मौन आनंन्दोल्लास नहीं बन सकता, तो वह रुग्ण है। तब वह उदासी बन जायेगा। तब वह रुग्णता में बदल जायेगा। तब मौन जीवंत नहीं होगा। वह मुर्दा होगा।
तुम मौन हो सकते हो मुर्दा बनने मात्र से, लेकिन तब तुम बुद्ध की अनुकंपा न पाओगे। तब दिव्यता तुममें नहीं उतर सकती। दिव्यता को दो चीजों की आवश्यकता है. मौन-नृत्य करता हुआ मौन, एक जीवित मौन। लेकिन महाकाश्यप उस घड़ी में दोनों ही था। वह मौन था। और जब दूसरे सब गंभीर थे, तो वह हंस पड़ा। बुद्ध ने स्वयं को महाकाश्यप में उंडेल दिया, लेकिन यह संदेश न
था।
इन दो चीजों को प्राप्त करो, तब मैं स्वयं को तुममें उंडेल सकता हूं। मौन होओ, और इस मौन को एक उदास चीज मत बनाओ। इसे नाचता हुआ और हंसता हुआ बनने दो। इस मौन को बाल-सुलभ होना होगा-ऊर्जा से भरा हुआ, पुलकित, मस्ती में डूबा हुआ। इसे मुर्दा नहीं होना चाहिए। तभी, केवल तभी जो बुद्ध ने महाकाश्यप को दिया, तुम्हें दिया जा सकता है।
मेरी सारी चेष्टा है कि किसी दिन, कोई महाकाश्यप हो जाये। लेकिन यह कोई संदेश नहीं है जो दिया जाना है।
चौथा प्रश्न:
आपने कई बार कहा कि ज्यादा शास्त्रों का कत हिस्सा वही कुछ है जो पीछे से जोड़े हुए अंश कहलाता है। क्या पतंजलि का भी इसी दोष से ग्रस्त है और किस तरह आप इस पर विचार करेंगे?
, पतंजलि के योगसूत्र नितांत शुद्ध है। किसी ने कभी उनमें कोई चीज बाद में जोड़ी नहीं है।
और कारण हैं कि क्यों ऐसा नहीं किया जा सका। पहली बात, पतंजलि का योगसूत्र कोई लोकप्रचलित ग्रंथ नहीं है। यह गीता नहीं है, यह कोई रामायण नहीं है, यह बाइबिल नहीं है। सामान्य जन कभी इसमें दिलचस्पी लेने वाले नहीं रहे। जब सामान्य भीड़ किसी चीज में दिलचस्पी लेती है, वह