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उसे दूषित कर देती है। ऐसा होना ही होता है। क्योंकि तब शास्त्रों को उनके स्तर तक नीचे खींच लाना पड़ता है। पतंजलि के योगसूत्र केवल विशेषतों के लिए बने रहे है। केवल कुछ चुने हुए व्यक्ति ही उनमें दिलचस्पी लेंगे। हर कोई उनमें दिलचस्पी नहीं लेने वाला। अगर संयोगवश अनजाने में पतंजलि का योगसूत्र तुम पा लेते हो, तो तुम केवल थोड़े से पृष्ठ ही पढ़ोगे और फिर तुम उसे दूर फेंक दोगे। यह तुम्हारे लिए नहीं है। यह एक कथा नहीं है। यह कोई नाटक नहीं है। यह एक प्रतीककथा नहीं है। यह एक सीधा वैज्ञानिक शोध-प्रबंध है केवल कुछ लोगों के लिए। जिस ढंग से इसे लिखा गया है वह ऐसा है कि जो इसके लिए तैयार नहीं हैं वे स्वचालित ढंग से इसकी ओर अपनी पीठ फेर लेंगे।
ऐसी ही घटना घ हई है इस सदी में गुरजिएफ के साथ। लगातार तीस वर्षों से गुरजिएफ एक पुस्तक तैयार कर रहा था। गुरजिएफ जैसी योग्यता वाला आदमी उस काम को तीन दिन में कर सकता है। तीन दिन भी शायद जरूरत से ज्यादा हों। लाओत्सु ने ऐसा किया था-तीन दिन में सारी 'ताओ तेह किंग' लिखी गयी थी। गुरजिएफ अपनी पहली पुस्तक तीन दिन में लिख सकता था, इसमें कोई कठिनाई न थी। लेकिन उसने तीस साल लगा दिये अपनी पहली पुस्तक लिखने में। और वह कर क्या रहा था? वह एक अध्याय लिखता और फिर वह अपने शिष्यों के सम्मुख उन्हें पढ़े जाने की अनुमति देता। शिष्य उस अध्याय को सुन रहे होते, और वह शिष्यों की ओर देख रहा होता। अगर वे समझ सकते तो वह उसे बदल देता। यह उसकी कसौटी थी कि अगर वह देखता कि वे उसे समझ रहे हैं तो वह अध्याय गलत होता। लगातार तीस वर्षों तक, हर अध्याय हजारों बार पढ़कर सुनाया गया था, और हर बार वह ध्यान से अवलोकन कर रहा था। जब पुस्तक इतनी पूरी तरह से असंभव हो गयी कि कोई उसे पढ़ और समझ नहीं सकता था, तो वह संपूर्ण हो गयी थी।
एक अत्यंत बुदधिमान व्यक्ति को भी उसे कम से कम सात बार तो पढ़ना ही पड़ेगा, तब उसके अभिप्राय की झलकियां आनी शुरू होंगी। लेकिन वे भी झलकियां मात्र ही होंगी। यदि कोई इसमें ज्यादा उतरना चाहता हो, तो उसे उसका अभ्यास करना होगा, जो कुछ भी गुरजिएफ ने कहा था। और अभ्यास द्वारा अर्थ स्पष्ट हो जायेगा। और जो गुरजिएफ ने लिख दिया है उसकी एक समग्र समझ पाने में कम से कम एक पूरी जिंदगी लग जायेगी।
इस प्रकार की पुस्तक में पीछे से कुछ नहीं जोड़ा जा सकता। वस्तुत: गुरजिएफ की पहली पुस्तक के बारे में कहा गया है कि बहुत थोड़े-से लोगों ने उसे पूरी तरह पढ़ा है। वह कठिन है। एक हजार पष्ठ! जब पहला संस्करण प्रकाशित हआ था.गरजिएफ ने उसे एक शर्त म
हआ था,गुरजिएफ ने उसे एक शर्त सहित प्रकाशित करवाया। केवल सौ पृष्ठ, प्रारंभिक भाग, काटे जाने थे। और सारे पृष्ठ नहीं काटे गये थे, वे अनकटे थे। केवल सौ पृष्ठ कटे हुए थे। और एक टिप्पणी पुस्तक पर छपी हुई थी जो बताती थी : 'अगर आप पहले सौ पृष्ठ पढ़ सकें और फिर भी आगे पढ़ने की सोचते हों, तभी दूसरे जुड़े हुए पृष्ठ खोलिए, वरना प्रकाशक को पुस्तक लौटा दें और अपना पैसा वापस ले लें।'