________________
३२
नयचक्र
ज्ञानचेतना में स्थापित करके वीतराग बनाकर स्वयं चला जाता है और इस तरह आत्मा को नयपक्षातिक्रान्त कर देता है, इसलिए वही पूज्यतम है। इसीलिए निश्चयनय परमार्थ का प्रतिपादक होने से भूतार्थ है। उसी का अवलम्बन करने से आत्मा सम्यग्दृष्टि होता है।
'प्रवचनसार' गा. १८६ की टीका में अमृतचन्द्रजी ने कहा है
रागपरिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप है। रागपरिणाम का ही आत्मा कर्ता है, उसी का ग्रहण करनेवाला और उसी का त्याग करनेवाला है। यह शुद्ध द्रव्य का कथन करनेवाला निश्चयनय है। और पुद्गलपरिणाम आत्मा का कर्म है वही पुण्य-पाप रूप है। पुद्गलपरिणाम का आत्मा कर्ता है, उसी का ग्रहण करनेवाला और त्यागनेवाला है। यह अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करनेवाला व्यवहारनय है। ये दोनों ही नय हैं, क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता दोनों रूप से द्रव्य की प्रतीति होती है। किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम होने से ग्रहण किया गया है; क्योंकि साध्य शुद्ध आत्मा है। अतः द्रव्य की शुद्धता का प्रकाशक होने से निश्चयनय ही साधकतम है। अशुद्धता का प्रकाशक व्यवहारनय साधकतम नहीं है। क्योंकि अशुद्धनय के अवलम्बन से अशुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है और शुद्धनय के अवलम्बन से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है।
व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय
'तत्त्वार्थसूत्र' आदि आगमिक सिद्धान्त ग्रन्थों में मोक्षमार्ग रूप से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का कथन है। इन्हें ही रत्नत्रय कहते हैं। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर अध्यात्म ग्रन्थों में व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग के साथ व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय का भी कथन है। दूसरे शब्दों में व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार चारित्र-ये व्यवहार मोक्षमार्ग हैं और निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र-ये निश्चय मोक्षमार्ग हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' में केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। तब क्या सिद्धान्त में मोक्ष का एक मार्ग है। और अध्यात्म में मोक्ष के दो मार्ग हैं? ऐसा नहीं है। सिद्धान्त हो या अध्यात्म, दोनों में मोक्ष का एक ही मार्ग है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है
एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्तात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतसि । तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥
-समयसारकलश, श्लो. २४०
'दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप यही एक मोक्षमार्ग है। जो पुरुष उसी में स्थित रहता है, उसी का निरन्तर ध्यान करता है, उसी में निरंतर विहार करता है, अन्य द्रव्यों का स्पर्श भी नहीं करता, वह अवश्य ही नित्य उदित रहनेवाले समयसार को शीघ्र ही प्राप्त करता है।'
अध्यात्मी अमृतचन्द्र ने सिद्धान्त के ही अनुरूप कथन किया है। उससे भिन्न नहीं किया। अन्तर केवल यह है कि सिद्धान्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहकर शान्त हो जाता है। तब अध्यात्म आगे बढ़कर स्पष्ट करता है कि सम्यग्दर्शन आदि आत्मा के ही गुण हैं। उनकी आत्मा से कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। आत्मा ऐसे अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड है। उसमें किसी भी गुण का कोई पृथक् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव नहीं है। आत्मा का कुछ अंश दर्शनरूप, कुछ अंश ज्ञानरूप, कुछ अंश चारित्ररूप हो-ऐसा भी नहीं है। पूर्ण आत्मा दर्शनरूप, पूर्ण आत्मा ज्ञानरूप और पूर्ण आत्मा चारित्ररूप है। जो कुछ भेद है वह व्यवहार से ही है; परमार्थ से नहीं। इसी से 'समयसार' के प्रारम्भ में ही आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary:org