Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 217
________________ -३३५ ] नयचक्र सरागचारित्रस्य स्वरूपं भेदं च दर्शयति मूलुत्तरसमणगुणा धारण कहणं च पंच आयारो। सोही तहव सुणिट्ठा सरायचरिया हवइ एवं ॥३३४॥ वदसमिर्दिदियरोहो आवस्साचेललोचमण्हाणं । 'ठिीभोज्जं एयभत्तं खिदिसयणमदंतघसणं च ॥३३५॥ सराग चारित्रका स्वरूप और भेद कहते हैं श्रमणोंके मूलगुणों और उत्तरगुणोंका धारण करना, उनका कथन करना, पाँच प्रकारका आचार, आठ प्रकारकी शुद्धि तथा सुनिष्ठा ये सब सरागचारित्र हैं ।। ३३४ ।। आगे ग्रन्थकार श्रमणोंके मूलगुणोंका और उत्तरगुणोंका कथन करते हैं पांच महाव्रत, पाँच समिति, पांचों इन्द्रियोंका निरोध, छह आवश्यक, वस्त्रका सर्वथा त्याग, केशलं चन, स्नान न करना, खड़े होकर भोजन करना, दिन में केवल एक बार भोजन करना, पृथ्वीपर सोना और दन्तघर्षण न करना ये २८ मूल गुण श्रमणोंके हैं ।। ३३५ ॥ विशेषार्थ-साधुओंके २८ मूल गुण इस प्रकार हैं-सम्यग्ज्ञानपूर्वक हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रहके त्यागको व्रत कहते हैं । हिंसाके पूर्ण त्यागको अहिंसा महाव्रत कहते हैं। और प्रमत्तके योगसे त्रस और स्थावर जीवोंके द्रव्य और भाव प्राणोंके घातनेका नाम हिंसा है। जो असावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करता है वह प्रमत्त या प्रमादी है। सारांश यह है कि रागादिके वशीभूत होकर प्रवृत्ति करने पर यदि किसी जीवके प्राणोंका घात न हो तब भी हिंसा होती है । और रागादिके वशीभूत न होकर प्रवृत्ति करने पर यदि किसीकी हिंसा हो भी जाती है तो भी वह हिंसा नहीं मानी गयी है। क्योंकि कहा है कि जीव मरे या जिये, जो असावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करता है वह नियमसे हिंसक है। क्योंकि वह किसीके जीने-मरनेका ध्यान न रखकर प्रवृत्ति करता है। और जो मुझसे किसी भी जीवको कष्ट न पहुँचे इस प्रकारकी भावनासे सावधानतापूर्वक चलता है, सावधानतापर्वक उठता-बैठता है, सावधानतापूर्वक शयन करता है और सावधानतापूर्वक वार्तालाप करता है उससे यदि किसी प्राणीको कष्ट पहुँच भी जाता है तब भी वह हिंसक नहीं है । जैसे एक साधु सावधानतापूर्वक देख-भालकर मार्गमें चलता है। उसके पैर रखनेके स्थान पर अचानक कोई जन्तु उड़कर आ गिरता है और साधुके पैरसे कुचलकर मर जाता है तो उसे उस जन्तुके वधका पाप नहीं लगता,क्योंकि साधुका मानस पवित्र था। इसी तरह रागादिके वशीभूत होकर अप्रशस्त वचन बोलना असत्य है और उसका सर्वथा त्याग सत्य महावत है । विना दी हुई वस्तुको स्वयं ग्रहण करना या दूसरोंको दे देना चोरी है और उसका पूर्णत्याग अचौर्यमहाव्रत है। हाँ, जो वस्तु सार्वजनिक उपभोगके लिए मुक्त हैं; जैसे नदीका पानी, या मिट्टी, उसका ग्रहण चोरी नहीं है। मन, वचन कायसे स्त्री मात्रके सेवनके त्यागको ब्रह्मचर्यवत कहते हैं तथा समस्त चेतन और अचेतन परिग्रहके और उससे ममत्वके त्यागको परिग्रह त्याग व्रत कहते हैं । ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समिति है। धर्मके लिए प्रयत्नशील मुनि सूर्योदय होने पर जब मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगता है, तब मनुष्य हाथी, घोडागाड़ी आदिके चलनेसे प्रासुक हुए मार्ग पर चार हाथ जमीन आगे देखकर धीरे-धीरे गमन करता है उसे ईर्यासमिति कहते हैं। हित-मित वचन बोलनेको भाषासमिति कहते हैं । शरीरकी स्थितिके लिए गृहस्थके घर जाकर उसके द्वारा १. 'अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥२४६॥ --प्रवचनसार । २. ठिदिभोज्ज क० ख० ज. मु. । 'वदसमिदिदियरोहो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्टावगो होदि ॥२०८-२०९॥ -प्रवचनसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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