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परिशिष्ट
निराकृत विशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः । तदाभासः समाख्यातः सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ॥६६॥ अभिन्नं व्यक्तभेदेभ्यः सर्वथा बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्तिः केषांचिद् दुनयस्तथा ॥ ६७॥ शब्दब्रह्म ेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि । संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ||६८ ||
नय सत्तामात्र शुद्धद्रव्यको मानता है । और वह यहाँ सदा सम्पूर्ण विशेष पदार्थों में उदासीनताको धारण करता है ।
'संग्रह' शब्द दो शब्दोंके मेलसे बना है। उनमें से 'सम्' का अर्थ है - एकीभाव या एकत्व तथा सम्यक्त्व या समीचीनपना। और 'ग्रह' का अर्थ है ग्रहण करना । दोनोंको मिला देनेसे संग्रहका अर्थ होता है - समीचीन एकत्वरूपसे ग्रहण करना । 'संग्रह' शब्दकी इस व्युत्पत्ति से ही उसका लक्षण स्पष्ट हो जाता है । अर्थात् समस्त भेद-प्रभेदोंका - उनकी जो जो जाति है, उसके अनुसार उनमें एकत्व के ग्रहण करनेवाले नको संग्रहनय कहते हैं; जैसे 'सत्' कहनेपर सत्ताके आधारभूत सभी पदार्थोंका संग्रह हो जाता है । 'द्रव्य' कहनेपर जीव, अजीव और उनके भेद-प्रभेदों का संग्रह होता | 'घट' कहने पर 'घट' रूपसे कहे जानेवाले समस्त घटोंका संग्रह हो जाता है ।
संग्रहनयके दो भेद हैं- परसंग्रह और अपरसंग्रह । परसंग्रहनयका विषय यह नय सत्ताके सम्पूर्ण भेद-प्रभेदोंमें सदा उदासीन रहता है । अर्थात् न तो उनका न उनको विधि ही करता है ।
परसंग्रहनयाभासका स्वरूप कहते हैं -
जो नय सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करके केवल सत्ताद्वैतको ही मानता है, वह विद्वानोंके द्वारा परसंग्रहामास कहा गया है, क्योंकि सत्ताद्वैत में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंके द्वारा बाधा आती है । सांख्योंके द्वारा माना गया प्रधान तत्व महान् अहंकार आदि तेईस प्रकारके व्यक्त भेदोंसे सर्वथा अमिन है, अतः महासामान्यस्वरूप है । इसी तरह शब्दाद्वैतवादी शब्दब्रह्मको अद्वैतरूप मानते हैं । ब्रह्माद्वैतवादी पुरुषाद्वैत मानते हैं । बौद्धों का एक भेद योगाचार ज्ञानाद्वैत मानता है। ये सब परसंग्रहाभास हैं । यह बात अन्य ग्रन्थोंमें दिखलायी गयी है ।
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सत्तामात्र शुद्धद्रव्य है । निषेध ही करता है और
भारतीय दर्शनों में कई दर्शन अद्वैतवादी हैं । अद्वैतका मतलब है - ऐकात्म्य - केवल एक ही तत्त्वकी मान्यता और भेदका सर्वथा अभाव । यथा— ब्रह्माद्वैतवादी केवल एक ब्रह्मको ही मानता है - जड़ और चेतन सब उसी के विकार हैं । शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण शब्दब्रह्म नामक अद्वैततत्त्वको स्वीकार करते हैं । उनका कहना है कि जगत् शब्दात्मक है । शब्दके बिना न तो कोई ज्ञान होता है और न कोई ऐसी वस्तु है। जो शब्दके बिना प्रतिभासित होती हो । बौद्धमतावलम्बी ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार एक ज्ञानमात्र तत्त्व मानता है, क्योंकि ज्ञानके बिना किसीकी भी प्रतीति नहीं होती । सांख्य अद्वैतवादी तो नहीं है, किन्तु वह जो एक प्रधान नामक तत्त्व मानता है उस प्रधानको अपने विकारोंसे, जिनकी संख्या २३ है, सर्वथा अभिन्न मानता है । अत: एक तरहसे वह भी सत्ताद्वैतरूप हो जाता है । इस प्रकारका अद्वैत संग्रहह्नयका विषय नहीं है । संग्रहनय यद्यपि एकत्वको विषय करता है, किन्तु अनेकत्वका निरास नहीं करता। यदि ऐसा करे तो वह संग्रहनय न होकर संग्रहनयाभास कहा जायेगा । अतः सापेक्ष एकत्व संग्रहनयका विषय है । और सर्वथा अद्वैतवाद संग्रहनयाभासका विषय है। क्योंकि सर्वथा अद्वैत प्रतीतिविरुद्ध है । सर्वथा अद्वैतवाद में पुण्य-पाप कर्मोंका द्वैत, अच्छे-बुरे फलका द्वंत, इसलोक-परलोकका द्वैत, विद्या अविद्याका द्वैत और बन्ध-मोक्षका द्वैत नहीं बनता । और इनके बिना संसार और मोक्ष भी नहीं बनता । द्वैतके बिना तो अद्वैतकी सिद्धि भी नहीं
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