Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 299
________________ २४९ नयविवरणम् निराकरोति 'यो द्रव्यं बहिरन्तश्च सर्वथा । सतदाभोऽभिमन्तव्यः प्रतीतेरपलापतः ॥७६॥ कार्यकारणता नास्ति ग्राह्यग्राहकतापि वा। वाच्यवाचकता चेति क्वार्थसाधनदूषणम् ॥७७।। लोकसंवृति सत्यं च सत्यं च परमार्थतः । क्वैवं सिद्धयेद्यदाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना ॥७८।। सामानाधिकरण्यं क्व विशेषणविशेष्यता । साध्यसाधनभावो वा क्वाधाराधेयताऽपि च ।।७।। संयोगो विप्रयोगो वा क्रियाकारकसंस्थितिः । सादृश्यं वैसादृश्यं वा स्वसन्तानेतरस्थितिः ।।८।। समुदायः क्वे च प्रेत्यभावादि द्रव्यनिह्नवे । बन्धमोक्षव्यवस्था वा सर्वथेष्टाऽप्रसिद्धितः ।।८।। ऋजुसूत्रनयाभासका स्वरूप कहते हैं जो नय बाह्य और अन्तरंग द्रव्योंका सर्वथा निराकरण करता है, उसे ऋजुसूत्रनयाभास मानना चाहिए क्योंकि वह प्रतीतिका अपलाप करता है। आगे उसी प्रतीतिके अपलापको स्पष्ट करते हैं अन्वयी द्रव्यका सर्वथा निषेध करनेपर कार्यकारणपना, ग्राह्य ग्राहकपना, और वाच्यवाचकपना नहीं बनता । तब ऐसी दशामें अपने इष्ट तत्वका साधन और पर पक्षका दूषण कैसे बन सकेगा तथा लोकव्यवहारसत्य और परमार्थसत्य कैसे सिद्ध हो सकेंगे, जिसका अबलम्बन लेकर बुद्धौंका धर्मोपदेश होता है। सामानाधिकरण्य, विशेषणविशेष्य माव, साध्यसाधनमाव, आधाराधेयभाव, ये सब कहाँसे बन सकेंगे१ संयोग, वियोग, क्रियाकारककी स्थिति, सादृश्य, विसदृशता, स्वसन्तान और परसन्तानकी स्थिति, समुदाय, मरणपना वगैरह और बन्धमोक्षकी व्यवस्था कैले बन सकेगी क्षणिकवादी बौद्धका मत है कि सभी पदार्थ एकक्षणवर्ती हैं. दूसरे क्षण में उनका सर्वथा विनाश हो जाता है। यदि पदार्थोंको एक क्षणसे अधिक दो क्षणवर्ती मान लिया जायेगा तो उनका कभी भी नाश न हो सकनेसे कूटस्थताका प्रसंग आ जायेगा, और तब कुटस्थ पदार्थमें क्रम या अक्रमसे अर्थक्रिया न होनेसे अवस्तुपना प्राप्त होगा। इस प्रकारसे बौद्ध स्थायी द्रव्यको नहीं मानते। उनकी ऐसी मान्यता ऋजुसूत्र नयाभास है: क्योंकि उक्त मान्यता प्रतीतिविरुद्ध है। प्रत्यभिज्ञान प्रमाणसे प्रत्येक बाह्य और अन्तरंग द्रव्य पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायमें अनुस्यूत ही सिद्ध होता है । जैसे मिट्टी के पिण्डसे घड़ा बन जानेपर भी मिट्टीपनेका नाश नहीं होता। फिर भी द्रव्यकी पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। अतः वस्तुक द्रव्यरूपसे नित्य और पर्यायरूपसे अनित्य माननेपर कूटस्थताका प्रसंग नहीं आता और ऐसा होनेपर उसमें सर्वथा अर्थक्रियाका भी विरोध नहीं होता जिसमें उसे अवस्तुपना प्राप्त हो। बौद्धोंका ही एक भेद योगाचार है। वह विज्ञानद्वैतवादी है, बाह्य पदार्थोंको नहीं मानता । उसका कहना है कि वास्तविक दृष्टिसे विचार करनेपर न कोई किसीका कारण है और न कोई किसीका कार्य है और कार्यकारण भावका अभाव होनेसे न कोई किसीका ग्राहक है न कोई किसीसे ग्राह्य है, न कोई किसीका वाचक है, न कोई किसीका वाच्य है। और जब कार्यकारणभावकी तरह ग्राह्यग्राहकभाव, वाच्यवाचकभाव भी नहीं है.तो बाह्य पदार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है। योगाचारकी यह मान्यता भी ऋजुसूत्रनयाभास है। क्योंकि कार्यकारणभाव आदिको वास्तविक माने बिना योगाचार अपने पक्षको समर्थन और दूसरेके पक्षका १. यद् अ०, मु. १ । २. तदा भासोऽभि-मु० २ । ३. ता चेति मु०१। ४.-कारण अ०, ब०, मु. १। ५. क्व प्रेत्यभावादिव्यस्य निह्नवो मु० २। ६. सर्वदेष्टा मु० २। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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