________________
नयविवरणम्
२५७
बनती हैं । शब्दनयको समभिरूढ़ आदि दो नयोंके साथ मिलानेसे दो सप्तभंगियाँ बनती हैं। और समभिरूढ़नयको एवंभूतनयके साथ मिलानेसे एक सप्तभंगी बनती है। इस प्रकार पक्ष और प्रतिपक्षरूपसे विधि-निषेधके द्वारा सात मूलनयोंको ( ६ + ५ + ४ + ३ + २ + १ = २१ ) इक्कोस सप्तभंगियाँ जाननी चाहिए ।
तथा नैगमनयके नौ भेदोंका परसंग्रह और अपरसंग्रहके साथ कथन करनेसे अठारह सप्तभंगियाँ होती हैं । नैगमनयके नौ भेदोंका परव्यवहारनय और अपरव्यवहारनयके साथ कथन करनेसे भी अट्ठारह सप्तभंगियाँ होती है । नैगमनयके नौ भेदोंका ऋजुसुत्रके साथ कथन करनेसे नौ सप्तभंगियाँ होती हैं। नैगमनयके नौ भेदोंका शब्दनयके छह भेदोंके साथ कथन करनेसे ५४ सप्तभंगियाँ होती हैं। नैगमनयके नौ भेदोंका समभिरूढनयके साथ कथन करनेसे नौ और एवंभूतनयके साथ कथन करनेसे नौ, इस तरह सब ११७ सप्तभंगियां होती हैं।
इसी तरह संग्रह आदि नय भेदोंको शेष नयोंके भेदोंके साथ मिलाकर कथन करनेसे सप्तभंगियाँ होती हैं । इस प्रकार उत्तरनयोंको १७५ सप्तभंगियाँ जानना चाहिए । अर्थात् नैगमनयको ११७, संग्रहनयको २२, व्यवहारनयको १८, ऋजुसूत्रनयको ६ और शब्दनयकी १२ । प्रत्येक वस्तुके प्रत्येक धर्ममें उसको प्रतिपक्षी धर्मकी योजना करके विधि-निषेधकी कल्पना करनेसे सप्तभंगीकी निष्पत्ति होती है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाले नैगमनयका आश्रय लेकर विधि कल्पना होती है और उसके प्रतिपक्षो संग्रहनयके आश्रयसे निषेध कल्पना होती है। क्योंकि प्रस्थ आदिका संकल्प मात्र ही तो प्रस्थ आदि नहीं है। विद्यमान प्रस्थको ही प्रस्थ कहा जाता है। इसी तरह नैगमनयके प्रतिपक्षी व्यवहारनयके आश्रयसे भी निषेधकी कल्पना की जाती है,क्योंकि व्यवहारनयकी दृष्टिसे प्रस्थपर्याय द्रव्यसे भिन्न नहीं है। अतः वह द्रव्यरूप ही है।जो द्रव्य नहीं है उसे जान नहीं सकते । नैगमनयके साथ उसके प्रतिपक्षी ऋजुसूत्र नयका आश्रय लेनेसे भी निषेध कल्पना होती है क्योंकि ऋजुसूत्र दृष्टिसे प्रस्थादि पर्यायमात्र है। अन्यथा उसकी प्रतीति नहीं हो सकती । शब्दनयका कथन है कि काल आदिके भेदसे भिन्न अर्थ प्रस्थ आदि रूप होता है। समभिरूढ़नयकी दृष्टि में पर्यायभेदसे भिन्न अर्थ प्रस्यादिरूप होता है। एवंभूतनयकी दृष्टिमें प्रस्थादि क्रियारूप परिणत अर्थ ही प्रस्थादि रूप होता है । इस तरह नैगमनयके साथ इन प्रतिपक्षी नयोंकी योजना करनेसे विधि और निषेधको कल्पना होती है, क्योंकि नैगमनयका विषय इन नयोंको मान्य नहीं है। इन्हीं विधि और निषेधको योजनासे सप्तभंग बनते हैं-है, नहीं, क्रमसे है नहीं, अवक्तव्य । है और अवक्तव्य, नहीं और अवक्तव्य, है, नहीं और अवक्तव्य । इस तरह नैगमनयके साथ उसके प्रतिपक्षी छह नयोंकी योजनासे छह सप्तभंगियाँ बनती हैं ।
इसी तरह संग्रहनयका आश्रय करनेसे विधि- कल्पना की जाती है कि सब केवल सत् ही है , गधेके सींगकी तरह असत्को प्रतीति नहीं होती। उसके प्रतिपक्षी व्यवहारनयके आश्रयसे निषेधकी कल्पना की जाती है कि सब केवल सत् ही नहीं है क्योंकि वस्तुकी प्रतोति केवल सत् रूपसे नहीं होती,बल्कि द्रव्यादि रूपसे होती है। संग्रहके प्रतिपक्षी ऋजुसूत्रनयके आश्रयसे भी प्रतिषेध कल्पना होती है। ऋजुसूत्र नय कहता है कि सब सत्स्वरूप नहीं हैं क्योंकि वस्तुकी प्रतीति केवल वर्तमान रूपसे ही होती है। अतः वस्तु अतीत और अनागत रूपसे असत् है। इसी तरह शब्दनय कहता है कि सब सत्स्वरूप नहीं हैं, क्योंकि काल आदिके भेदके द्वारा भिन्न अर्थकी उपलब्धि होती है। एवंभूतनय कहता है कि सब सत्स्वरूप नहीं है जो अर्थ उस क्रियारूप परिणत हो रहा है वही अर्थ उस शब्दवाच्य होता है । इस प्रकार संग्रहनयके साथ उसके प्रतिपक्षी पाँच नयोंकी योजनाके द्वारा विधिनिषेधकी कल्पना करनेसे पाँच सप्तभंगियाँ होती हैं। सात भंग उक्त प्रकारसे ही जानना चाहिए।
इसी प्रकार व्यवहारनयके द्वारा विधि की जाती है कि सब द्रव्यादिस्वरूप है। उसका प्रतिपक्षो ऋजसूत्रनय प्रतिषेध करता है कि सब द्वव्यादिस्वरूप नहीं हैं. केवल पर्यायमात्रकी ही उपलब्धि होती है। शब्दनय, समभिरूढ़ और एवंभूतनय भी व्यवहारनयके वक्तव्यका निषेध करते हुए कहते हैं कि सब द्रव्यादि
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org