Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 305
________________ २५५ नयविवरणम् संग्रहाद् व्यवहारोऽपि सद्विशेषावबोधकः । न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिनः ॥१९॥ नर्जुसूत्रः प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचरः। कालत्रितयवृत्यर्थगोचराद् व्यवहारतः ॥१०॥ कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छता। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्र शब्दस्तद्विपरीतवित् ॥१०१।। शब्दात् पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थमभीप्सिनः । न स्यात् समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्ययः ॥१०२॥ थोडा है। सातों नयोंमें सबसे प्रथम नाम नैगमनयका है। उसके बाद संग्रहनय आता है। नैगमनयका विषय महान् है और संग्रहनयका विषय उससे थोड़ा है,क्योंकि संग्रहनय केवल सत् को ग्रहण करता है और नैगमनय सत् और असत् दोनोंको ग्रहण करता है । यह बात दोनों नयोंके गत उदाहरणोंसे स्पष्ट है। नैगमनय वस्तुके अभावमें भी उसके संकल्पमात्रको ही ग्रहण करता है । जैसे पानी वगैरह भरने में लगे हुए व्यक्तिसे यदि कोई पछता है कि आप क्या करते हैं तो वह उत्तर देता है-रोटी बना रहा है। किन्तु अभी तो वहाँ आटा तक भी मौजूद नहीं है। फिर भी उसका संकल्प रोटी बनानेका है।अतः उसके अभावमें भी वह कहता है कि मैं रोटी बना रहा हूँ। परन्तु संग्रहनय तो केवल सत्को ही ग्रहण करता है। जैसे 'घट' कहनेसे सब घटोंका ग्रहण होता है। आगे कहते हैं कि संग्रहनयसे व्यवहारनयका विषय अल्प है समस्त सत्पदार्थों के समूहको विषय करनेवाले संग्रहनयसे सत्के किसी एक भेदका ज्ञान करानेवाला व्यवहारनय भी अधिक विषयवाला नहीं है। संग्रहनयसे ग्रहण किये गये पदार्थोंके भेद-प्रभेदको ग्रहण करनेवाला व्यवहारनय है। अतः संग्रहनय बहुविषयवाला है और व्यवहारनय अल्प विषयवाला है। जैसे संग्रहनय 'सत्' से समस्त सत्पदार्थों को ग्रहण करता है। किन्तु व्यवहारनय उसके भेदोंमेंसे जीव या अजीव आदिको ग्रहण करता है। आगे व्यवहारनयसे ऋ को अल्प विषयवाला बतलाते हैं भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालोंमें रहनेवाले अर्थों को विषय करनेवाले व्यवहारनयसे केवल वर्तमान अर्थोंका विषय करनेवाला ऋजुसूत्र बहुविषयवाला नहीं है। व्यवहारनय तो त्रिकालवर्ती पदार्थोंको विषय करता है और ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमानकालकी पर्यायको ही विषय करता है। अतः व्यवहारनयसे ऋजुसूत्रका विषय अल्प है। आगे ऋजूसूत्रनयसे शब्दनयको अल्पविषयवाला बतलाते है काल, कारक आदिका भेद होते हुए भी भमिन्न अर्थको स्वीकार करनेवाले ऋजूसूत्रनयसे उससे विपरीत अर्थको जाननेवाला शब्दनय महाविषयवाला नहीं है। ऋजूसूत्रनय काल,कारक आदिके भेदसे अर्थको भेदरूप नहीं मानता,किन्तु शब्दनय मानता है । अतः शब्दनयसे ऋजुसूत्रनयका विषय महान् है और ऋजुसूत्रसे शब्दनयका विषय अल्प है। आगे कहते हैं कि शब्दनयसे समभिरूढ़नयका विषय अल्प है पर्यायभेदसे अभिन्न अर्थको स्वीकार करनेवाले शब्दनयसे उससे विपरीत समभिरूढ़ नय मी महाविषयवाला नहीं है। शब्दनय शब्दभेदसे अर्थभेद नहीं मानता । इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्दोंका अभिन्न अर्थ मानता है। किन्तु समभिरूढ़नय प्रत्येक शब्दका अर्थ भिन्न-भिन्न मानता है। अतः शब्दभेदसे अर्थभेद न माननेवाले शब्दनयसे शब्दभेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूढनय अल्पविषयवाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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