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नयविवरणम्
शंका- एक धर्मको लेकर तो वचनका एक ही भंग होना चाहिए, सात भंग नहीं,
क्योंकि एक
धर्मको सात प्रकारसे नहीं कहा जा सकता ।
समाधान - प्रश्नके वशसे सात भंग होते है । जब प्रश्नके सात प्रकार हो सकते हैं, तो उसके उत्तर रूप वचनों के भी सात प्रकार होने चाहिए। प्रश्नके सात प्रकार होनेका कारण यह है कि वस्तुमें एक धर्मका कथन करनेपर अन्य धर्मोका आक्षेप करना होता है ।
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शंका- वस्तुके एक धर्मका कथन करनेपर अन्य धर्मोका आक्षेप क्यों करना होता है !
समाधान - क्योंकि वह धर्म उन अन्य धर्मोके विना नहीं हो सकता। जैसे किसी वस्तुमें अस्तित्व धर्मकी जिज्ञासा होनेपर प्रश्नकी प्रवृत्ति होती है, वैसे ही उस अस्तित्व धर्मके अविनाभावी नास्तित्व आदि धर्मोकी जिज्ञासा होनेपर भी प्रश्नोंकी प्रवृत्ति होती । इस प्रकार जिज्ञासाके सात प्रकार होनेसे प्रश्नोंके सात प्रकार होते हैं और प्रश्नोंके सात प्रकार होनेसे वचनके सात प्रकार होते हैं ।
शंका- किसी वस्तुमें अस्तित्वधर्मका नास्तित्व आदि छह धर्मोका अविनाभावी होना असिद्ध है । अतः जिज्ञासा के सात प्रकार मानना भी अयुक्त है ?
समाधान- नहीं, वह तो युक्तिसे सिद्ध है । और युक्ति इस प्रकार है- एक धर्मीमें अस्तित्वधर्मं प्रतिषेध करने योग्य नास्तित्व आदि धर्मोके साथ अविनाभावी है, धर्म होनेसे । जैसे कि हेतुका अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मका अविनाभावी है । आशय यह है कि प्रत्येक वादी अनुमान प्रमाणके द्वारा अपने इष्ट तत्त्वकी सिद्धि करता है। अनुमानके तीन अंग होते हैं-पक्ष, हेतु और दृष्टान्त । जैसे यह पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होने से । जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ आग होती है, जैसे- रसोईघर । और जहाँ-जहाँ आग नहीं होती वहाँ धुआँ भी नहीं होता जैसे- नदी । इस अनुमान में हेतु 'धूमवाला होनेसे' पर्वत में भी रहता है, रसोईघरमें भी रहता है, किन्तु नदी में नहीं रहता । अतः यह हेतु सच्चा हेतु माना जाता है; क्योंकि जो हेतु-पक्ष पर्वतके समान सपक्ष रसोईघर में तो रहता है, किन्तु विपक्ष नदीमें नहीं रहता, वही हेतु सच्चा होता है । अतः हेतु में जैसे अस्तित्वधर्म, नास्तित्वधर्मका अविनाभावी है, वैसे ही सर्वत्र जानना चाहिए ।
शंका-साध्यके न होनेपर साधनका नियम रूपसे न होना ( नास्तित्व ) ही तो साध्य के होनेपर साधनका होना ( अस्तित्व ) है | अतः अस्तित्व और नास्तित्व ये दो धर्म नहीं हैं । तब आप नास्तित्वको अस्तित्व धर्मका प्रतिषेध्य ( निषेध करनेके योग्य ) धर्म कैसे कहते हैं ? इस प्रकार पररूपसे नास्तित्व तो स्वरूपसे अस्तित्व ही हुआ । अब यदि नास्तित्वको निषेध्य कहा जाता है, तो उसका अविनाभावी होने से स्वरूपास्तित्वमें बाधा आती है । वस्तु उसी रूपसे अस्ति है और उसी रूपसे नास्ति है, ऐसी प्रतीति तो नहीं होती ।
समाधान-तब तो हेतुको जो बौद्धने त्रिरूपात्मक ( पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षमें असत्त्व ) माना है, वह नहीं बनेगा । क्योंकि उक्तकथनके अनुसार हेतुका पक्ष सपक्षमें सत्त्व ही विपक्ष में असत्व है । यदि दोनोंको भिन्न मानते हो तो एक वस्तुमें भी स्वरूपसे अस्तित्व और पररूपसे नास्तित्वको भिन्न-भिन्न मानना चाहिए ।
शंका- किसी एक में अस्तित्वकी सिद्धि होनेपर उसकी अन्यत्र नास्तित्व सिद्धि हो जाती है। अतः अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों भिन्न नहीं हैं ।
समाधान - एक के अस्तित्वकी सिद्धिके सामर्थ्य से अन्यत्र उसके नास्तित्वकी सिद्धि हो जानेपर उसे सामर्थ्यसिद्धि मानकर भी भिन्न नहीं मानना तो बड़ी विचित्र बात है । तब तो कहींपर किसीको नास्तित्वसिद्धिके सामर्थ्य से अस्तित्वकी सिद्धि होनेसे दोनों में भिन्नताके अभावका प्रसंग आता है । जो इस प्रकार भाव ( अस्तित्व ) और अभाव ( नास्तित्व ) को एक कहता है, वह न तो कहीं प्रवृत्ति कर सकता है और न कहींसे निवृत्ति कर सकता है, क्योंकि उसकी निवृत्तिका विषय जो भाव है, वह अभावसे भिन्न नहीं है, अभाव भावसे भिन्न नहीं है । अतः यथार्थ में अस्तित्व और नास्तित्वमें कहीं भेद मानना ही चाहिए। और जहाँ कहीं अस्तित्व
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