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परिशिष्ट [धर्मधर्म्यविनाभावः सिद्धत्यन्योन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत्कारकज्ञापकाङ्गवत् ॥ सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥]-आ० मी०
अनेकान्तसापेक्ष होनेसे और अनेकान्तके एकान्त सापेक्ष होनेसे अन्योन्याश्रय नामक दोष नहीं आता है क्योंकि स्वरूपसे वस्तु अनेकान्तात्मक ही प्रसिद्ध है। उसमें एकान्तकी अपेक्षाकी आवश्यकता नहीं है और एकान्तको भी वस्तुरूपसे अनेकान्तकी अपेक्षा नहीं है। हाँ, उन दोनोंका अविनाभाव-एकके बिना दूसरेका न होनापरस्परकी अपेक्षासे सिद्ध होता है।
यही बात 'आप्तमीमांसामें स्वामो समन्तभद्रने कही है
धर्म और धर्मीका अविनामाव तो परस्परकी अपेक्षासे सिद्ध होता है, किन्तु उनका स्वरूप परस्परकी अपेक्षासे सिद्ध नहीं होता । वह तो स्वयं अपने कारणोंसे बन जाता है, जैसे कर्तापना कर्मपनेकी अपेक्षा से है और कर्मपना कर्तापने की अपेक्षासे है। इस तरह कर्तापने और कमपने का व्यवहार ही परस्पर सापेक्ष है।कर्ता और कर्मका स्वरूप परस्पर सापेक्ष नहीं है। वह तो अपने-अपने अर्थोंसे स्वत: उत्पन्न होता है। ऐसे ही प्रमाण और प्रमेयका स्वरूप तो अपने-अपने कारणोंप्ले स्वत: सिद्ध है, किन्तु उनमें जो ज्ञाप्य-ज्ञापक व्यवहार है वह परस्परकी. अपेक्षासे है । इसी प्रकार अस्ति और जीवमें धर्म-धर्मापनेका अविनाभाव एक-दूसरेकी अपेक्षासे हैकिन्तु दोनोंका स्वरूप स्वत: सिद्ध है। यही बात एकान्त और अनेकान्तके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए।
अतः स्वरूपकी अपेक्षा जीवादि कथंचित् सत्स्वरूप ही हैं, और पररूपको अपेक्षा कथंचित् नास्तिस्वरूप ही हैं। ये दो भंग सभी वादियोंके लिए मान्य है। इनको माने बिना अपने-अपने इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकती/इसीसे स्वामी समन्तभद्रने'आप्तमीमांसामें कहा है
ऐसा कौन लौकिक या परीक्षक है जो समी चेतन-अचेतन पदार्थों को स्वरूप आदि चारकी अपेक्षासे सरस्वरूप ही और पररूप आदि चारकी अपेक्षासे असत्स्वरूप ही नहीं मानना चाहेगा। यदि वह ऐसा नहीं मानेगा तो उसके इष्ट तस्वकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती।
अब आगे जीव आदि अवक्तव्य कैसे हैं,यह बतलाते हैं
उक्त प्रकारसे पहले कहे गये तथा परस्परमें एक-दूसरेके विरोधी और एक साथ प्रधान रूपसे विवक्षित अस्ति, नास्ति दोनों धर्मोकी एक वस्तुमें कथन करने की इच्छा होनेपर उस प्रकारके किसी शब्दके न होनेसे जीवादि अवक्तव्य है।
आशय यह है कि एक वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व गुणोंके एक साथ विद्यमान होते हुए भी केवल सत्व शब्दके द्वारा उन दोनोंको एक साथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि सत्त्व शब्द असत्व धर्मको कहने में असमर्थ है । इसी तरह केवल असत्त्व शब्दसे भी उन दोनों धर्मोको नहीं कहा जा सकता, क्योंकि असत्त्व शब्द सत्त्वधर्मको नहीं कह सकता। शायद कहा जाये कि कोई एक ऐसे पदका संकेत कर लिया जायेगा जो दोनों धर्मोको एक साथ कह सकता हो, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वह सांकेतिक पद भी क्रमसे ही दोनों धर्मोंका ज्ञान कराने में समर्थ है, युगपत् नहीं। अतः एक साथ प्रधानरूपसे विवक्षित सत्त्व और असत्त्वधर्मोसे युक्त वस्तु वाचकोंके न होनेसे अवक्तव्य है। किन्तु वह सर्वथा वक्तव्य नहीं है, क्योंकि अवक्तव्य शब्दसे तथा अन्य छह वाक्योंके द्वारा वक्तव्य भी है। अतः कथंचित् अवक्तव्य है यह निर्णीत होता है। इसी तरह शेष तीन भंगोंकी भी योजना कर लेनी चाहिए। ये सातों ही भंग चूंकि अस्तित्व आदि धर्मकी मुख्यतासे अनेक धर्मात्मक वस्तुका कथन करते हैं,अतः इनके समुदायको प्रमाण सप्तभंगी कहते हैं ।
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