Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 317
________________ नयविवरणम् सर्व शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने । स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननयाः स्थिताः ॥११०॥ 'तैर्नीय मानवस्त्वंशाः कथ्यन्तेऽर्थनयाश्च ते । वैविध्यं व्यवतिष्ठन्ते प्रधान गुणभावतः ॥ १११ ॥ यत्र प्रवर्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नयः । पूर्वपूर्वो नयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते ॥ ११२ ॥ सहस्रशती यद्वत्तस्यां पञ्चशती मता । पूर्वं संख्योत्तरस्यां वै संख्यायामविरोधतः ॥ ११३॥ पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते । तथोत्तरनयः पूर्वनयार्थे सकले सदा ।। ११४ || नय के अन्य भेद अतः उक्त सभी नय दूसरोंके लिए अर्थका कथन करनेपर प्रकाशन करनेपर ज्ञाननय हैं । तथा उनके द्वारा ज्ञात किये गये अर्थनय है । अतः प्रधानता और गौणतासे नयोंके तीन भेद होते हैं । २६७ शब्दनय हैं और ज्ञाता के लिए अर्थका वस्तुके धर्म कहे जाते हैं, इसलिए वे जगत् में पदार्थके तीन रूप पाये जाते हैं-ज्ञानरूप, शब्दरूप और अर्थरूप । जैसे घट पदार्थ अर्थ रूप है, उसका ज्ञान ज्ञानरूप घट है, और उसका वाचक घट शब्द शब्दरूप घट है । इसी तरह नयके भी तीन रूप हैं - ज्ञाननय, शब्दनय और अर्थनय । ज्ञानरूप नयके द्वारा ज्ञाता स्वयं जानता है और जब वह अपने ज्ञात वस्तुधर्मोंको शब्दके द्वारा दूसरोंको बतलाता है तो वे शब्द शब्दनय कहे जाते हैं । और उस ज्ञाननयका विषयभूत अर्थ या शब्दनयका वाच्यरूप अर्थ अर्थनय कहा जाता है । अतः उक्त सातों ही नय ज्ञानरूप भी हैं, शब्दरूप भी हैं और अर्थ रूप भी हैं । अतः सभी नय ज्ञाननय, शब्दनय और अर्थनयके भेदसे तीन प्रकारके जानने चाहिए। इनमें से ज्ञान स्वरूप नय प्रधान है और शब्दरूप तथा अर्थरूपनय गौण । अथवा इन तीनों भेदोंमेंसे जहाँ जिसको विवक्षा हो वह प्रधान और शेष गौण जानने चाहिए । आगे बतलाते हैं कि इन नयोंकी प्रवृत्ति वस्तुमें किस प्रकारसे होती है— जिस अपने विषय में उत्तरनय नियमसे प्रवृत्त होता है, उसमें पूर्व-पूर्व नयको रोका जा सकता । जैसे हजारमें आठ सौ और आठसौ में पाँच सौ गर्भित हो जाते हैं, संख्या समा जानेमें कोई विरोध नहीं है। 1 और जैसे उत्तरवर्तिनी संख्या पूर्वकी संख्यामें गर्मित नहीं होती है, वैसे ही उत्तरनय समस्त पूर्व नयके विषय में प्रवृत्ति नहीं करता है । Jain Education International यदि एवंभूतनयसे नैगमनयको ओर तक क्रमसे देखा जाये तो नयोंका विषय अधिक-अधिक होता जाता है और नैगमनयसे एवंभूतनय तक नयों का विषय उत्तरोत्तर अल्प होता जाता है । अतः उत्तरके नय पूर्व-पूर्व नयोंके विषयमें प्रवृत्ति नहीं कर सकते हैं, किन्तु पूर्व- पूर्वके नय उत्तर-उत्तर नयके विषयको जान सकते हैं । जैसे हजारमें आठ सौ संख्याका समावेश तो हो जाता है, किन्तु आठ सौ में हजार संख्याका समावेश नहीं हो सकता । वैसे ही नैगमनय तो उत्तरके संग्रह आदि नयोंके विषयोंमें प्रवृत्ति कर सकता है, किन्तु संग्रह आदि नय नैगमनयके विषयमें प्रवृत्ति नहीं कर सकते हैं । प्रवृत्ति करनेसे नहीं उत्तर संख्या में पूर्व १. वे नो- अ० मु० १२. त्रे च शती -आ० ब० मु० १ । ३. -तरत्वाम्यां अ० ब० मु० १ । -तरत्र स्यात् सं० - मु० २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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