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नयविवरणम्
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वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये। कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ।।३।। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सत्त्वादिप्राप्तिविच्छिदे । स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वतः ॥५४।।
इस तरह सभी अन्य नये प्रश्नोंका अन्तर्भाव सात ही प्रश्नाम हो जाता है।
पहले अस्तित्व और तीसरे अस्तित्व-नास्तित्वको मिलाकर नया प्रश्न उत्पन्न करना तो पुनरुक्त है, क्योंकि पहला अस्तित्व भंग तो तीसरे भंगका ही अवयव होनेसे पूछा जा चुका है। इसी तरह प्रथम भंगको चतुर्थ आदि भंगोंके साथ, द्वितीय भंगको तीसरे आदि भंगोंके साथ, तीसरेको चौथे आदि भंगोंके साथ, चौथेको पांचवें आदि भंगोंके साथ, पाँचवेंको छठेके साथ और छठेको सातवें के साथ मिलाकर उत्पन्न हुए भंग भी पुनरुक्त जानने चाहिए। अतः तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें भंगोंके योगसे भी नया भंग नहीं बन सकता।
शंका-तब तो तीसरे आदि भंग भी पुनरुक्त कहे जायेंगे ?
समाधान-नहीं, क्योंकि तीसरे अस्ति-नास्ति भंगमें दोनों धर्मों को क्रमसे प्रधानरूपसे कहा गया है, पहले और दूसरे भंगमें दोनोंको उस रूपसे नहीं कहा गया। पहलेमें केवल अस्तित्व धर्म प्रधान है और दूसरेमें केवल नास्तित्व धर्म प्रधान है, और चतुर्थ भंगोंमें दोनों धर्म युगपद् प्रधान हैं। अतः वह भी पुनरुक्त नहीं है। पांचवें भंगमें अस्तित्व और अवक्तव्यधर्म प्रधान हैं। छठेमें नास्तित्व और अवक्तव्यधर्म प्रधान है तथा सातवेंमें क्रम और अक्रमसे विवक्षित अस्तित्व और नास्तित्वधर्म प्रधान है। अतः पुनरुक्तिपना नहीं है ।
शंका-इस तरह तो तृतीयको प्रथम भंगके साथ मिलानेपर दो अस्तित्व और एक नास्तित्वका प्राधान्य होनेसे तथा तीसरेको दूसरेके साथ मिलानेसे दो नास्तित्व और एक अस्तित्वकी प्रधानतासे अपुनरुक्त भंग बन सकते हैं क्योंकि उक्त सात भंगोंमें इस रूपसे कथन नहीं किया गया है ?
समाधान-यह ठीक नहीं है। क्योंकि एक वस्तुमें अनेक अस्तित्व या अनेक नास्तित्व या अनेक अवक्तव्यधर्म नहीं रह सकते । तथा सप्तभंगी एक ही वस्तुके धर्मोको लेकर होती है, अनेक वस्तुओंके धर्मोको लेकर नहीं होती। किन्तु एक ही वस्तुके अनेक धर्मोको लेकर अनेक सप्तभंगियाँ हो सकती हैं। जैसे-जीववस्तुमें जीवत्वकी अपेक्षा अस्तित्व,अजीवत्वकी अपेक्षा नास्तित्व, या मुक्तत्वको अपेक्षा अस्तित्व, अमुक्तत्वको अपेक्षा नास्तित्व, इस तरह एक ही वस्तुके अनन्तधर्मोको लेकर एक ही वस्तुमें अनन्त सप्तभंगियाँ पृथक्पृथक् हो सकती हैं।
शंका-सात प्रकारके उक्त वचनों में से किसी एक भंगवचनसे भी अनन्तधर्मात्मक वस्तुका कथन हो जाता है।अतः शेष वचन-विकल्प व्यर्थ क्यों नहीं हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उन शेष वचनों में अन्य-अन्य धर्मों की प्रधानतासे तथा शेषधर्मोकी गौणतासे वस्तुको प्रतिपत्ति होती है अतः वे सभी वचन उपयोगी हैं।
आगे 'सब सत् ही हैं' इस वाक्यमें 'ही' के प्रयोगकी सार्थकता बतलाते हैं
अनिष्ट अथ की निवृत्तिके लिए वाक्यमें अवधारमा (हीका प्रयोग) करना चाहिए। हीका प्रयोग नहीं करनेपर, कहीं-कहीं वाक्य न कहे गयके समान समझा जाता है।
आगे 'स्यात्' पदके प्रयोगका समर्थन करते हैं
उस 'ही' का प्रयोग करने पर भी सर्वथा सत्व आदिकी प्राप्तिका निषेध करने के लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि वह 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका घोतक है।
'स्यात् अस्ति एव जीवः' कथंचित् जीव है ही, इस पहले वाक्यमें 'स्यात्' पदका प्रयोग करना योग्य है। यदि उसका प्रयोग नहीं किया जायेगा और 'जीव है हो' इतना ही कहा जायेगा, तो सभी प्रकारोंसे
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