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परिशिष्ट
इत्यन्योन्यमपेक्षायां सन्तः शब्दादयो नयाः । निरपेक्षाः पुनस्ते स्युस्तदाभासाविरोधतः ॥९४।। तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मताः । त्रयः शब्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः ।।१५।। पूर्वो पूर्वो नयो भूमविषयः कारणात्मकः । परः परः पुनः सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह ॥१६॥ सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते। महाविषयता भावाभावान्निगमानयात् ।।९७॥ यथा हि सति संकल्पस्तथैवासतिवेधते । तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता ।।९।।
हुए हों उसे दण्डी और जो सींगवाला हो उसे विषाणी कहते हैं। लोकमें जो द्रव्य, गुण, क्रिया आदिके निमित्तसे शब्दोंकी प्रवृत्ति पायी जाती है,वह व्यवहार मात्रसे है; निश्चयसे नहीं, ऐसा यह नय मानता है ।
आगे कहते हैं कि ये शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत नय सापेक्ष अवस्थामें सम्यक् और निरपेक्ष अवस्थामें मिथ्या होते हैं
___ इस प्रकार परस्परमें सापेक्ष होनेपर शब्द सममिरूढ़ एवभूत नय समीचीन होते हैं और निरपेक्ष होनेपर नयामास होते हैं क्योंकि तब उनमें परस्परमें विरोध प्रतीत होता है।
उक्त तीनों शब्द नय परस्परमें यदि एक दूसरेकी अपेक्षा न करके अपनी ही बात कर एकान्त रूपसे आग्रह करने लगते हैं तो वे मिथ्यानय हैं अर्थात् यदि शब्दनय समभिरूढ़ एवंभूतनयकी अपेक्षा नहीं रखता उन दोनों नयोंके विषयोंको मिथ्या बतलाता है तो वह शब्दाभास है। तथा समभिरूढ़नय यदि शब्द और एवंभूतनयोंका निराकरण करके केवल अपने ही विषयकी सत्यताका दावा करता है तो वह समभिरूढ़नयाभास है। इसी प्रकार एवंभूतनयके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए ।
उक्त सात नयोंमें अर्थनय और शब्दनयका भेद बतलाते हैं
उक्त सात नयोंमसे ऋजुसूत्र पर्यन्त चार अर्थ नय माने गये हैं, और शेष तीन शब्दनय हैं; क्योंकि वे शब्दवाच्य अथको विषय करते हैं।
___ नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नयोंको अर्थनय कहते हैं। क्योंकि ये चारों नय अर्थप्रधान है, प्रधान रूपसे अर्थको हो विषय करते हैं। शेष तीन नय शब्दनय हैं, क्योंकि शब्दकी प्रधानतासे अर्थको विषय करते हैं। उनका विषय शब्दके द्वारा वाच्य अर्थ है। सातों नयोंके जो लक्षण ऊपर कहे हैं उनसे उनकी अर्थप्रधानता तथा शब्दप्रधानता स्पष्ट हो जाती है।
उक्त नयोंमें कौन नय बहुविषयवाला है और कौन नय अल्पविषयवाला है, आगे यह बतलाते हैं
पहला-पहला नय बहुत विषयवाला है,क्योंकि वह कारणरूप है। और आगे-आगेका नय सूक्ष्म विषयवाला है,क्योंकि वह कार्यरूप है।
आगे उक्त कथनको स्पष्ट करते हुए संग्रहनयसे नैगमनयको बहुत विषयवाला बतलाते हैं
संग्रहनयका विषय केवल सत्तामात्र है।अतः भाव और अमाव रूप अर्थको विषय करने वाले नैगमयनसे संग्रहनय बहुत विषयवाला नहीं हो सकता। क्योंकि जैसे सत्पदार्थमें संकल्प होता है, वैसे ही असत् पदार्थमें भी संकल्पका बोध होता है। अतः सत् और असत्में प्रवर्तमान नैगमनयका महान् विषय है।
यहाँसे यह बतला रहे हैं कि पूर्व-पूर्वके नयोंका विषय बहुत है और उत्तर-उत्तरके नयोंका विषय
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