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परिशिष्ट
क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छतः । नैवंभूतः प्रभूतार्थो नयः समभिरूढतः ॥१०३।। नेगमा प्रातिकूल्येन न संग्रहः प्रवर्तते। ताभ्यां वाच्यमिहाभीष्टा सप्तभङ्गी विभागतः ॥१०४! नैगमव्यवहाराभ्यां विरुद्धाभ्यां तथैव सा । सो नैगमर्जुसूत्राभ्यां तादृग्भ्यामविगानतः ॥१०॥ स। शब्दान्निगमादन्याधुक्तात् समभिरूढतः । सैर्वभूताच्च सा ज्ञेया विधानप्रतिषेधगा ।।१०६॥ संग्रहादेश्च शेषेण प्रतिपक्षेण गम्यताम् । तथव व्यापिनी सप्तभङ्गी नयविदा मता ॥१०७।। विशेषैरुत्तर. सर्वैर्नयानामुदितात्मनाम् । परस्परविरुद्धार्थैर्द्वन्द्वक्त्तैर्यथायथम् ॥१०८।। प्रत्येया प्रतिपर्यायमविरुद्धा तथैव सा। प्रमाणसप्तभङ्गीव तां विना नाभिवाग्गतिः ॥१०९।।
आगे कहते हैं कि समभिरूढ़ नयसे एवंभूत अल्पविषयवाला है
क्रियाभेद होनेपर मी अभिन्न अर्थको स्वीकार करनेवाले सममिरूंढ़ नयसे एवंभूतनय बहुविषयवाला नहीं है।
सारांश यह है कि एवंभूतनय स्वर्गके स्वामीको उसी समय इन्द्र मानता है जब वह आनन्द करता होता है। क्योंकि इन्द्रका अर्थ आनन्द करनेवाला है। किन्तु समभिरूढ़नय यद्यपि इन्द्रका अर्थ आनन्द करनेवाला ही मानता है, किन्तु उसने कभी भी आनन्द किया हो और वर्तमानमें वह कुछ अन्य कार्य करता हो, तब भी उसे इन्द्र ही मानता है। अतः समभिरूढनयसे एवंभूतनयका विषय कम है।
आगे नयवाक्यकी प्रवृत्तिको बतलाते हैं
संग्रहनय नैगमनके अनुकूल होकर प्रवृत्ति नहीं करता अर्थात् प्रतिकूल होकर प्रवृत्ति करता है। अत: उन दोनों नयोंके द्वारा यहाँ भेद करके अभीष्ट सप्तभंगी कह लेनी चाहिए। उसी प्रकार परस्परमें विरुद्ध नैगम और व्यवहारनयके द्वारा सप्तभंगीका कथन कर लेना चाहिए तथा परस्परमें विरुद्ध नैगम और ऋजुसूत्र नयोंके द्वारा सप्तमंगीका कथन कर लेना चाहिए। तथा विधि निषेधरूप वह सप्तमगी नैगमनय
और शब्दनयसे, नैगमनय और समभिरूढनयसे, और नैगमनय तथा एवंभूतनयसे जान लेनी चाहिए । नै गमन यकी ही तरह संग्रहादि शेष नयों के भी उनके प्रतिपक्षी शेषनयों के साथ सप्तमंगी जानलेनी चाहिए। इस प्रकार नयवेत्ताओंके द्वारा मान्य सप्तभंगी सर्वनयों में व्याप्त है। परस्परमें विरुद्ध अर्थका कथन करनेवाले ऊपर कहे गये नयोंके समस्त उत्तर भेदोंके साथ मी यथायोग्य मेल करके सप्तमंगीका कथन कर लेना गहिए । इस प्रकार प्रमाण सप्तभंगीकी तरह प्रत्येक पर्याय में विरोध रहित सप्तभंगीको जानना चाहिए । उसके बिना वचनकी गति सम्भव नहीं है।
नैगमनयको संग्रह आदि शेष छह नयोंके साथ मिलानेसे छह सप्तभंगियाँ बनती हैं। संग्रहनयको व्यवहार आदि पाँच नयोंके साथ मिलानेसे पाँच सप्तभंगियाँ बनती हैं । व्यवहारनयको ऋजुसूत्र आदि चार नयोंके साथ मिलानेसे चार सप्तभंगियाँ बनती हैं । ऋजुसूत्रनयको शब्द आदि तीन नयोंके साथ मिलानेसे तीन सप्तभंगियाँ
१. नैगमप्रातिकूल्येन संग्रहः संप्रवर्तते मु.। २. स्यान्नंग -मु० २ । ३. स शब्दान्नैगमादन्या यु-मु०। ४. र्द्वन्द्ववृत्ति मु० २।
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