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परिशिष्ट
कालादि भेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः ॥८२॥ विश्वदृश्वास्य जनिता सूनुरित्येकमादृताः। पदार्थ कालभेदेऽपि व्यवहारानुरोधतः ।।८३॥ करोति क्रियते पुष्यस्तारकापोऽभ इत्यपि । कारकव्यक्तिसंख्यानां भेदेऽपि च परे जनाः ॥८४|| एहि मन्ये रथेनेत्यादिकसाधनभिद्यपि । संतिष्ठेतावतिष्ठतेत्याधुपग्रहभेदने ।। ८५।। तन्न श्रेयः परीक्षायामिति शब्दः प्रकाशयेत् । कालादिभेदनेऽप्यर्थाभेदनेऽतिप्रसङ्गतः ।।८६।।
खण्डन कैसे कर सकेगा। अपने पक्षके समर्थनमें वह जो कुछ बोलेगा, वह वाचक कहा जायेगा और उसका
Iो वह स्वपक्षका समर्थन कर सकता है। और ऐसा होनेपर वाच्यवाचकभावकी सिद्धि होती है। इसपरसे विज्ञानाद्वैतवादी योगाचारका कहना है कि वास्तवमें तो वाच्यवाचकभाव आदि नहीं है, किन्तु लोकव्यवहारमें उन्हें माना जाता है।अतः कल्पित लोकव्यवहारसे हम स्वपक्षका साधन और विरोधीपक्षका दूषण करेंगे। तो जैनाचार्यका कहना है कि एक लोकव्यवहार सत्य और एक परमार्थ सत्य ये दो प्रकारके सत्य भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होते। तब बुद्धका धर्मोपदेश भी वाच्यवाचकके अभावमें कैसे बन सकता है। तथा आधारभूत द्रव्यको न मानसे सामानाधिकरण्यभावका भी अभाव हो जायेगा। दो पदार्थोंका समान अधिकरणमें अर्थात् एक वस्तुमें ठहरनेपर ही समान अधिकरणपना बनता है। क्षणिकवादमें ऐसा होना सम्भव नहीं है। और सामानाधिकरण्यके अभावमें विशेषण-विशेष्यभाव भी नहीं बनता । जैसे 'सब क्षणिक हैं सत् होनेसे' यहाँ 'सब' विशेष्य है, क्षणिक आदि उसके विशेषण है। सामानाधिकरण्यके अभावमें यह विशेषण-विशेष्यभाव कैसे बन सकता है और विशेषण-विशेष्यके अभावमें साध्यसाधनभाव भी नहीं बन सकता। तथा द्रव्यके अभावमें संयोग और विभाग भी नहीं बन सकता, न क्रिया ही बन सकती है। क्रियाके अभावमें कारकोंकी व्यवस्था नहीं बन सकती। और तब कोई भी वस्तु वास्तव में अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती। सदृश और विसदृश परिणाम भी नहीं बन सकते, क्योंकि परिणामी द्रव्यको आप मानते नहीं। परिणामीके अभावमें परिणाम कैसे हो सकता है और सदश तथा विसदृश परिणामके अभावमें स्वसन्तान और परसन्तानकी स्थिति नहीं बनती, क्योंकि समानता और असमानताके आधारपर ही स्वसन्तान और परसन्तान सिद्ध होती है। समुदाय भी नहीं बनता, क्योंकि समुदायो अनेक द्रव्योंके असमुदायरूप अवस्थाको त्यागकर समुदायरूप अवस्थाको स्वीकार करनेपर ही समुदाय बन सकता है। सो आप मानते नहीं हैं । इसोसे जीवन-मरण, शुभ-अशुभकर्मोका अनुष्ठान, उनका फल पुण्य-पापका, बन्ध आदि भी नहीं बनता। तब संसार और मोक्षकी व्यवस्था कैसे रह सकती है। अतः बौद्धोंका क्षणिकवाद उचित नहीं है।
अर्थनयोंका वर्णन करके अब शब्दनयको कहते हैं
काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रहके भेदसे जो नय अर्थके भेदका कथन करता है, उसे यहाँ शब्दप्रधान होनेसे शब्दनय कहते हैं। व्यवहारनयके आग्रहसे 'इसके विश्वको जिसने देख लिया है ऐसा पुन पैदा होगा' इस प्रकार कालभेदके होनेपर मी पदार्थको एकरूप ही अंगीकार करते हैं। देवदत्त करता है और देवदत्तके द्वारा किया जाता है, इस प्रकार कारकभेद होनेपर भी अन्य लोग पदार्थको एकरूप ही मानते हैं। 'पुष्यः' एक व्यक्ति है और 'तारकाः' बहुव्यक्तिका सूचक है। इस प्रकार व्यक्तिभेद होनेपर भी पदार्थभेद नहीं मानते । 'आपः' बहुवचनान्त है और 'अम्भ:' एकवचनान्त है। इस प्रकार वचन
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