Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 295
________________ नयविवरणम् २४५ विद्यते चापरोऽशुद्धद्रव्यव्यजनपर्ययो । अर्थीकरोति यः सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते॥६०॥ भेदाभिदाभिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापतः । पूर्ववन्नंगमाभासी प्रत्येतव्यो तयोरपि ।।३१।। नवधा नैगमस्यैवं ख्यातेः पञ्चदशोदिताः। नयाः प्रतीतिमारूढाः संग्रहादिनयैः सह ।।६२।। ऐकध्येन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो नयः । स्वैजातेरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन ।।३।। समेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते । निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते ॥६४॥ शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मानं संग्रहः परः । स चाशेषविशेषेषु सदोदासीन्यभागिह ॥६५॥ आगे अशुद्धद्रव्यव्यंजन पर्याय नैगमनयका स्वरूप कहते हैं जो अशुद्धद्रव्य और व्यंजन पर्यायको विषय करता है वह चौथा अशुखदम्यम्यंजनपर्याय नैगमनय है। जैसे 'गुणी मनुष्य ।' यहाँ गुणी तो अशुद्धद्रव्य है और मनुष्य व्यंजनपर्याय है। उक्त दोनों नयोंके द्वारा विषय किये गये द्रव्य और पर्यायका परस्परमें सर्वथा भेद या सर्वथा अभेदके द्वारा जो कथन किया जाता है, वह पहले की तरह दोनों नयोंका नैगमामास जानना चाहिए, क्योंकि दम्य और पर्यायमें सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद माननेसे प्रतीतिका अपलाप होता है। द्रव्य और पर्यायमें न तो सर्वथा भेदकी प्रतीति होती है और न सर्वथा अभेदकी प्रतीति होती है। अत: सत् और चैतन्यमें सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद मानना शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमामास है। और मनुष्य तथा गुणवान्पनेमें सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद मानना भशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय नैगमामास है। आगे नैगमनयके भेदोंका उपसंहार करते हैं इस प्रकार नैगमनयके नौ प्रकार कहनेसे संग्रहनय आदि छह नयोंके साथ प्रतीति सिद्ध नोंकी संख्या पन्द्रह कही है। नैगमनयके नौ भेद ऊपर इस प्रकार कहे हैं-नैगमनयके तीन भेद-पर्यायनगम, द्रव्यनगम और द्रव्यपर्यायनगम । पर्यायनगमके तीन भेद है-अर्थपर्यायनंगम, व्यंजनपर्यायनंगम और अर्थव्यंजनपर्यायनंगम । द्रव्यनगमके दो भेद है-शुद्धद्रव्यनगम और अशुद्ध द्रव्यनगम । द्रव्यपर्यायनगमके चार भेद है-शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनगम, शुद्ध द्रज्यव्यंजनपर्यायनगम, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनगम, अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम । इनमें संग्रह आदि शेष छह नयोंको मिलानेसे संक्षेपसे पन्द्रह नय होते हैं । आगे संग्रहनयका स्वरूप कहते हैं प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमागों के द्वारा अपनी जातिका विरोध न करते हुए सभी विशेषोंका कथंचित् एकत्वरूपसे ग्रहण करना संग्रहनय है। 'संग्रह' में 'सम्' शब्दका अर्थ 'एकीमाव' और 'समीचीनपना' लिया जाता है। और ऐसा होनेपर संग्रहनयका लक्षण उसकी निरुक्तिके द्वारा किया जाता है। पर संग्रह १. 'भेदाभिसन्धिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापकः'-मु०२। मिदामिदा-मु० ।। २. एकत्वेन मु० । ३. सजातेअ०, मु०, सुजाते-ब! 'स्वजात्यविरोधेनकध्यमुपनोय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः । --सर्वाथसिद्धि ॥३३ । ४. शद्धद्रव्यमभिप्रेति संग्रहस्तदभेदतः । भेदानां नासदात्मकोऽप्यस्ति भेदो विरोधतः ।। -लघीयस्त्रय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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