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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
। गा०३३७
विज्जावच्चं संघे साहुसमायार तित्थअभिवुड्ढी।
धम्मक्खाण सुसत्थे सरायचरणे ण णिसिद्धं ॥३३७॥ समचारिणा सह समाचारार्थमाह
लोगिगेसद्धारहिओ चरणविहूणो तहेव अववादी ।
विवरीओ खलु तच्चे वज्जेव्वा ते समायारे ॥३३८॥ कारण है। ध्यान करते समय अचानक आनेवाले उपसर्गको शान्तिके साथ सहन करना परीषह है। परीषहके २२ भेद है-१. भूखकी बाधाको सहना, २. प्यासकी बाधाको सहना, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. डांस-मच्छर,
धाको सहना, ७. संयमसे अरति उत्पन्न होने के कारण उपस्थित होनेपर भी संयममें रति करना, ८. स्त्रियोंकी बाधाको निर्विकार चित्तसे सहना, ९. नंगे पैर चलनेकी बाधाको सहना, १०. एक ही आसनसे बैठनेकी बाधाको सहना, ११. जमीनपर एक ही करवटसे सोने की बाधाको सहना, १२. अत्यन्त कठोर वचनोंको सुनकर भी शान्त रहना, १३. मारकी परीषह को सहना, १४. आहारादिके न मिलने पर भी किसीसे याचना न करना, १५. आहारादिका लाभ न होने पर भी सन्तुष्ट रहना, १६. पैरमें काँटा लगनेकी परीषहको सहना, १७ रोगादिका कष्ट सहन करना, १८. शरीर पर लगे मलसे खेदखिन्न न होना, १९. मान-अपमानमें हर्ष-विषाद न करना, २०. अपने पाण्डित्यका गर्व न करना, २१. ज्ञानकी प्राप्ति न होने पर खेदखिन्न न होना तथा २२ श्रद्धान से च्युत होने के निमित्त उपस्थित होने पर भी च्युत न होना । ये बाईस परीषह तथा पूर्वोक्त १२ प्रकारके तप साधुके उत्तर गुण कहे जाते हैं। पाँच आचार भी उत्तर गुण है--दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । विनय और आचारमें अन्तर है-- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपके निर्मल करने में जो प्रयत्न किया जाता है वह विनय है और उनके निर्मल हो जानेपर जो उनका पालन यत्नपर्वक किया जाता है उसे आचार कहते हैं ।
संघमें वैयावृत्य करना, साधु सामाचारी, धर्म तीर्थको वृद्धिके लिए प्रयत्न, धर्मका निरूपण, ये सब कार्य सरागचारित्रमें निषिद्ध नहीं हैं ॥३३७॥
विशेषार्थ-प्रवचनसारमें श्रमणके दो प्रकार बताये हैं-शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। तथा शुभोपयोगी श्रमणोंका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि समस्त परिग्रहके त्यागी श्रमण भी कषायका लेश होनेसे केवल शुद्धात्मपरिणति रूपसे रहने में असमर्थ होते हैं, अतः शुद्धात्मपरिणति रूपसे रहनेवाले अर्हन्तादिमें भक्ति रखते हैं, उस प्रकारका प्रवचन करनेवाले साधुजनोंमें वात्सल्यभाव रखते हैं। उनके प्रति आदरभाव रखते हैं, आचार्यादिको वन्दना करते हैं, सेवा-शुश्रूषा करते हैं । ये सब सरागचारित्रके धारी श्रमणोंको चर्या है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका उपदेश देना, शिष्योंका संग्रह करना, उनका पोषण करना, जिनपूजाका उपदेश देना ये सब सरागश्रमणों के लिए निषिद्ध नहीं है। सारांश यह है कि छहकायके जीवोंकी विराधनासे रहित तथा शुद्धात्मपरिणतिके संरक्षणमें निमित्तभूत श्रमणोंका उपकार करनेकी प्रवृत्ति सरागी श्रमणोंमें होती ही है। किन्तु यदि कोई श्रमण वैयावृत्त्यके निमित्तसे अपने संयमका ही घात करता है तो वह मुनिपदसे च्युत हो जाता है । उक्त सब कार्य संयमकी साधनाकी दृष्टिसे ही विधेय हैं । अतः सरागी श्रमणकी सब प्रवृत्ति संयमके अविरुद्ध ही होना चाहिए।
समान आचारवाले साधके साथ ही सामाचारी करनेका विधान करते हैं
जो लौकिकजन श्रद्धासे रहित है, चारित्रसे हीन है, अपवादशील है,वह साधुत्वसे विपरीत है, अतः उसके साथ सामाचारी नहीं करना चाहिए ॥३३८॥ १. सुअत्थे अ० क० ख० मु० । 'वंदणणमंसणेहि अब्भुट्टाणाणुगमणपडिवत्तो। समणेसु समावणओ ण णिदिदा रायचरियम्हि ॥२४७॥'-प्रवचनसार । २. "णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि । लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि ॥२६८॥ णिग्गंथं पव्वइदो वदि जदि एहिगेहि कम्महि । सो लोगिगो ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तोवि ॥२६९।-प्रवचनसार ।
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