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१८६ द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा०३६९ - शुभपरमाण्वास्रवो भवति । ततस्तीर्थकरनामकर्मबन्धो भवति । पश्चादभ्युदयपरम्परानिःश्रेयसस्वार्थसिद्धिनिमित्तरूपं भवति । तत आसन्नभव्यस्य दर्शनचारित्रमोहोपशमात् क्षयोपशमात् क्षयाद्वा स्वाश्रितस्वरूपनिरूपकभावनिराकाररूपं सम्यग्द्रव्यश्रुतं कारणसमयसारः। तदेकदेशसमर्थो भावश्रतं कार्यसमयसारः। ततः स्वाश्रितोपादेयभेदरत्नत्रयं कारणसमयसारः। तेषामेकत्वावस्था कार्यसमयसारः। तदेकदेशशुद्धतोत्कर्षमन्तमुंखाकारं शुद्धसंवेदनं क्षायोपशमिकरूपम् । ततः स्वाश्रितधर्मध्यानं कारणसमयसारः। ततः प्रथमशुक्लध्यानं कार्यसमयसारः। ततो द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानकं क्षीणकषायस्य द्विचरमसमयपर्यन्तं कारणकार्यपरम्परा कारणसमयसारः । एवमप्रमत्तादिक्षीणान्तं समयं समयं प्रति कारणकार्यरूपं ज्ञातव्यम् । तस्माद् घातिक्षये भावमोक्षो भवति । सहजपरमपारिणामिकवशात्क्षायिकानों चतुष्टयप्रकटनं नवके दललब्धिरूपं जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरमात्मा साक्षात्कार्यसमयसार एव भवति । ततो द्रव्यमोक्षो भवति । अनन्तरं सिद्धस्वरूपं कार्यसमयसारो भवति । एवमवयवार्थप्रतिपत्तिपूर्विका समुदायार्थप्रतिपत्तिर्भवतीति न्यायादुपादानका रणसदृशं कार्य भवति । परमचित्कलाभरणभूषितो भवति । सोऽपि भव्यवरपुण्डरीक एव लभते ।
"खयउवसमियविसोही देसण पाउग्ग करणलद्धी य । चत्तारिवि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्तं ॥"-लब्धिसार, गा० ३ ।
स्वरूप परमकार्य के निमित्तसे शुभ परमाणुओंका आस्रव होता है। उससे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है। उसके पश्चात् वह तीर्थकर नामकर्मका बन्ध सांसारिक अभ्युदयकी परम्पराके साथ मोक्षरूपी स्वार्थको सिद्धिमें निमित्त होता है। ( कैसे निमित्त होता है यह बतलाते हैं ) निकट भव्य जीवके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे स्वाश्रित स्वरूपका निरूपक निराकार भावरूप जो सम्यक् द्रव्यश्रुत है वह कारणसमयसार है और उसके पश्चात् एकदेश समर्थ जो भावश्रुत है वह कार्यसमयसार है । उस भावश्रुतके पश्चात् जो स्वाश्रित होनेसे उपादेय भेदरत्नत्रय होता है वह कारणसमयसार है। और उस भेदरत्नत्रय की जो एकरूपता है वह कार्यसमयसार है। उसके पश्चात् एकदेश शुद्धताको लिये हुए अन्तर्मुखाकार क्षायोपशमिकरूप शुद्ध स्वसंवेदन होता है। उससे होनेवाला स्वाश्रित धर्मध्यान कारणसमयसार है। उसके पश्चात् होनेवाला प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमयसार है। उसके पश्चात् क्षीणकषायगुणस्थानके उपान्त्य समय पर्यन्त कारण कार्यपरम्परासे होनेवाला दूसरा शुक्लध्यान कारणसमयसार है। इस तरह अप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीणकपाय गुणस्थान पर्यन्त प्रतिसमय कारण और कार्यरूप समयसार जानना चाहिए, अर्थात् पूर्वावस्था कारण है, उत्तरावस्था कार्य है।जो पूर्वावस्थाका कार्य है,वही उत्तरावस्थाका कारण है । उस दूसरे शुक्लध्यानके द्वारा घातिया कर्मोंका क्षय होनेपर भावमोक्ष होता है। सहज परम पारिणामिक भावके वशसे क्षायिक अनन्तचतुष्टय--अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य का प्रकटन जो नौ केवलब्धिरूप है ( क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य ) वह जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट परमात्मा साक्षात् कार्य समयसार ही होता है । उससे द्रव्य मोक्ष होता है। उसके अनन्तर सिद्धस्वरूप कार्यसमयसार होता है। इस प्रकार 'अवयवएकदेशका अर्थ जानने पर समुदायके अर्थका बोध होता है' इस न्यायके अनुसार उपादान कारणके समान ही कार्य होता है। आत्मा उत्कृष्ट चैतन्यकी कलारूपो आभरणोंसे भूषित होता है । यह अवस्था भव्योत्तम जीव ही पाँच लब्धियों-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि रूप सामग्रीके प्रभावसे प्राप्त करता है। अन्य नहीं। इस प्रकार कारणकार्यरूपसे पराश्रित और स्वाश्रित समयसारको आत्मा कैसे जानता है, यह कहते हैं-जैसे 'मोहनीय और ज्ञानावरण कर्मका क्षय होनेपर ज्ञान बाह्य
१. परिणामा मु० । २. क्षोणकषायपर्यन्तं मु०। ३. नामनन्तच- अ० ज० मु० । ४. इयं गाथा 'आ' प्रती टिप्पणरूपेण वर्तते।
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