Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 283
________________ २३३ नयविवरणम् मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा। ज्ञातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥१३॥ निःशेषदेशकालार्थागोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितः ॥१४॥ त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते ॥१५॥ परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु । श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत् ॥१६॥ किन्हींका कहना है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मनःपर्ययज्ञानसे भी जाने हुए पदार्थके एक अंशमें नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती,क्योंकि ये तीनों ज्ञान सम्पूर्ण देश और सम्पूर्ण कालवर्ती अर्थोको विषय नहीं करते, यह सुनिश्चित है। उनका ऐसा कहना उचित ही है क्योंकि यह हमें इष्ट है। ऊपर कहा गया है कि प्रमाणसे जानी गयी वस्तुके एक देशमें नयोंकी प्रवृत्ति होती है । और जैन सिद्धान्तमें प्रमाण ज्ञान पाँच है-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल । इनमेंसे मति, अवधि और मनःपर्ययका विषय सीमित है। मतिज्ञान इन्द्रियों और मन आदिको सहायतासे द्रव्योंकी कुछ ही पर्यायोंको जानता है । अवधिज्ञान उनकी सहायताके बिना ही केवल रूपी पदार्थोंको ही कुछ पर्यायोंको जानता है । मनःपर्यय भी आत्माके द्वारा दूसरेके मनोगतरूपी पदार्थों की कुछ पर्यायोंको जानता है, अतः ये तीनों ही ज्ञान सम्पूर्ण देश और सम्पूर्ण कालवर्ती पदार्थों को जानने में असमर्थ हैं। इसलिए इन ज्ञानोंके विषयमें नयोंकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। ऐसा किसीके कहनेपर ग्रन्थकार कहते हैं कि उक्त कथन उचित ही है । हम भी ऐसा ही मानते हैं कि इन तीनों ज्ञानोंके विषयमें नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती। क्योंकि नयोंका विषय समस्त देश और समस्त कालवर्ती पदार्थ है। त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंके अंशोंमें प्रवृत्ति करनेके कारण केवलज्ञानको उन नोंका मूल मानना भी उचित नहीं है,क्योंकि'नय तो अपने विषयको परोक्ष रूपसे जानते हैं और केवलज्ञान तो स्पष्ट है। अतः प्रमाणकी तरह आगे कहे जानेवाले नयोंका मूल श्रुतज्ञान सिद्ध होता है। जब नयोंकी प्रवृत्ति समस्त देश और समस्त कालवर्ती सब पदार्थोंमें होती है और इसीलिए मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उनका मूल नहीं है तो यह बात स्वतः आ जाती है कि केवलज्ञान ही नयोंका मूल होना चाहिए क्योंकि वह समस्त देश और समस्तकालवर्ती पदार्थों को जानता है। किन्तु ऐसा भी नहीं है क्योंकि नय अपने विषयको अस्पष्ट रूपसे जानते हैं और केवलज्ञान स्पष्ट रूपसे सब पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानता है। स्पष्ट केवलज्ञानके भेद अस्पष्ट ग्राही नहीं हो सकते । इसलिए पाँच प्रमाणोंमें से शेष रहा श्रुतज्ञान ही नयोंका मूल है। उसीके भेद नय हैं। पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धिमें 'प्रमाणनयरधिगमः' सूत्रको व्याख्या करते हुए लिखा है कि प्रमाणके दो भेद हैं-स्वार्थ और परार्थ। अर्थात् एक ऐसा प्रमाण है जिससे ज्ञाता स्वयं ही जान सकता है उसे स्वार्थ प्रमाण कहते हैं। और एक ऐसा प्रमाण है जिससे ज्ञाता दूसरोंको भी ज्ञान करा सकता है उसे परार्थ प्रमाण कहते हैं। श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष चारों ज्ञान केवल स्वार्थ हैं। किन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी है । ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ है और वचनात्मक श्रुत परार्थ हैं । उसी श्रुतज्ञानके भेद ,नय है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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