Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 291
________________ नयविवरणम् नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्त' हेतोरेवेति षण्नयाः । संग्रहादय एवेह न वाच्याः प्रपरीक्षकैः ||३९|| सप्तैते' नियतं युक्ता नैगमस्य नयत्वतः । तस्य त्रिभेद व्याख्यानात् कैश्चिदुक्ता नया नव ॥४०॥ तत्र पर्यायगस्त्रेधा नैगमो द्रव्यगो द्विधा । द्रव्यपर्यायगः प्रोक्तश्चतुर्भेदो ध्रुवं ध्रुवैः ॥४१॥ अर्थ पर्याययोस्तावद् गुणमुख्यस्वभावतः । कचिद्वस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते ||४२|| यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिणः । इति सातार्थपर्यायो विशेषणतया गुणः ॥४३॥ संवेदनार्थ पर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचोगतिः ॥४४॥ उक्त कारण से ही ऋजुसूत्र आदिमें मी नैगमनय का अन्तर्भाव नहीं होता । इसलिए परीक्षा प्रधानी आचार्यों को संग्रह आदि छह ही नय नहीं कहने चाहिए । ऋजुसूत्र आदि नय भी वस्तुके केवल एक ही अंशको ग्रहण करते हैं । इसलिए संग्रह आदि छह नयों से अतिरिक्त एक नैगमनय भी मानना चाहिए । तार्किक सिद्धसेन दिवाकरने अपने सन्मतितर्क में नैगमनयको छोड़कर संग्रहादि छह ही नय बतलाये हैं । उसीको लक्ष्य करके विद्यानन्दस्वामीने नैगमनयकी स्थापना की है। और उसे एक पृथक् नय माना है । २४१ अत: नैगमके नय होनेसे नियमसे ये सात नय उचित हैं। उसके तीन भेदोंका विस्तार करने से किन्हीं भाचायने नौ नय कहे हैं । आचार्य विद्यानन्दिने अपने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकके व्याख्यानमें नैगमनय के तीन भेद कहे हैंपर्यायगम, द्रव्यनैगम और द्रव्यपर्यायनंगम । उनमेंसे पर्यायनैगमके तीन भेद हैं-अर्थपर्यायनंगम, व्यंजनपर्यायगम और अर्थव्यंजनपर्यायनंगम । द्रव्यनैगमके दो भेद हैं-- शुद्ध द्रव्यनैगम और अशुद्ध द्रव्यनैगम । द्रव्यपर्यायनगमके चार भेद हैं- शुद्धद्रव्यार्थ पर्यायनैगम, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनं गम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्यव्यंजन पर्यायगनैगम | इस प्रकार नैगमनयके नौ भेद हैं । ی उनमें से पर्यायनैगम के तीन भेद, द्रव्यनैगमके दो भेद और द्रव्यपर्यायनैगमके चार भेद, स्थिर ज्ञानियोंने निश्चित रूपसे कहे हैं । आगे ग्रन्थकार नैगमनयके उक्त भेदोंमेंसे पर्यायनैगमनयका कथन करते हैं किसी एक वस्तुमें दो अर्थपर्यायोंको गौण मुख्यरूप से जानने का ज्ञाताका अभिप्राय होता है । जैसे प्राणीका सुख संवेदन प्रतिक्षण नाशको प्राप्त हो रहा है । यहाँ सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण रूप होनेसे गोण है और संवेदनरूर अर्थपर्याय विशेष्यरूप होनेसे मुख्यताको प्राप्त हो रही इष्ट है । अन्यथा इस प्रकार से उसका कथन नहीं किया जा सकता । Jain Education International आत्माका सुखसंवेदन——सुखानुभूति क्षण-क्षण में उत्पन्न और नष्ट हो रही है । यह नैगमनयका एक उदाहरण है । इसमें सुख और संवेदन ये दोनों अर्थपर्याय नैगमनयके विषय हैं । किन्तु इनमेंसे संवेदन नामक १. हैतवां वेति अ० मु० १, हेतो वो वेति-ब० । २. सप्तैवेते तु युज्यन्ते - मु० २ । ३. भेदनाख्या - ब० । भेदताख्या- मु० २ । ४. क्षणध्वं - मु० २।५ - रोरिणि - मु० २०१६. सत्तार्थ - अ० ब० मु० १ । ७. पृ० २७० । ३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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