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परिशिष्ट
सर्वथा सुखसंवित्त्यो नात्वेऽभिमतिः पुनः । स्वाश्रयाच्चार्थपर्याय गमाभोऽप्रतीतितः ॥४५॥ कश्चिद् व्यञ्जनपर्यायो विषयो कुरुतेऽञ्जसा। गुणप्रधान भावेन धर्मिण्येकत्र नैगमः ।।४६॥ सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावतः । प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धितः ॥४७॥ तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि । ज्ञेयो व्यञ्जनपर्यायनेगमाभो विरोधतः ॥४८॥ अर्थव्यंजनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः । धार्मिके सुख जीवेत्वमित्येवमनुरोधतः ॥४९॥
अर्थपर्याय तो विशेष्यरूप होनेसे मुख्यरूपसे नैगमनयका विषय है और सुख रूप अर्थ पर्याय संवेदनका विशेषण होनेसे गौणरूपसे नैगमनयका विषय है। इस प्रकार दो अर्थपर्यायोंमेंसे एकको मुख्य और एकको गौण करके जानना पर्यायनंगमनय है ।
आगे अर्थपर्याय नैगमाभासका उदाहरण देते हैं
सुख और संवेदनको परस्परमें तथा अपने आश्रयमत आरमासे सर्वथा भिन्न मानना अर्थपर्यायनेगमामास है; क्योंकि उस प्रकारकी प्रतीति नहीं होती।
जो नैगमनय न होकर उसकी तरह प्रतीत हो उसे नेगमाभास या मिथ्या नैगमनय कहते हैं। आत्मासे उसकी अर्थपर्याय सुख और संवेदन सर्वथा भिन्न नहीं है और न परस्पर में ही सर्वथा भिन्न प्रतीत होते है। किन्तु उनको परस्परमें तथा आत्मासे सर्वथा भिन्नरूपसे जानना अर्थपर्याय नगमाभास है ; क्योंकि सुख और ज्ञान परस्परमें कथंचित् भिन्न है, उसी तरह आत्मासे भी कथंचित् भिन्न हैं । घट-पटकी तरह सर्वथा भिन्न नहीं हैं। किसी भी द्रव्यसे उसके गणोंकी पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं होती है। क्योंकि द्रव्य गुणपर्यायात्मक होता है उसी तरह एक द्रव्यकी ही गुणपर्याय होनेसे वे गणपर्याय भी परस्परमें सर्वथा भिन्न नहीं होती।
आगे व्यंजन पर्याय नैगमनयका स्वरूप सोदाहरण कहते हैं
कोई नैगमनय एक धर्मी में गौणता और प्रधानतासे दो व्यंजन पर्यायोको ठीक-ठीक विषय करता है। जैसे आत्मामें सच्चैतन्य है। यहाँ 'सत्' तो चैतन्यका विशेषण होनेसे गौणरूपसे नैगमनयका विषय है । और चैतन्य विशेष्य होनेसे मुख्यरूपसे नैगमनयका विषय है । वर्तमान क्षणवर्ती सूक्ष्मपर्यायको अर्थपर्याय कहते हैं और स्थूलपर्यायको जो वचन गोचर हो व्यंजनपर्याय कहते हैं। ___ आगे व्यंजनपर्यायनगमाभासका स्वरूप कहते हैं
उन सत् और चैतन्यमें परस्परमें तथा उनके आधारभूत आत्मासे अत्यन्त भेद कहना व्यंजन पर्यायनैगमामास है,क्योंकि इस प्रकारके कथनमें विरोध दोष प्राप्त होता है।।
यदि सत और चैतन्य सर्वथा भिन्न होते तो 'सच्चैतन्य' इस प्रकारका विशेषण विशेष्य भाव नहीं बन सकता। तथा चैतन्यको सत्से सर्वथा भिन्न माननेपर चैतन्य असत् हो जायेगा । इसी तरह आत्माको सत और चैतन्यसे सर्वथा भिन्न माननेपर आत्मा असत् और अचेतन हो जायेगा । किन्तु न तो चैतन्य असत है और न आत्मा ही असत और अचेतन है। अतः उक्त कथनमें विरोध दोष आता है।
अर्थ व्यंजन पर्याय नैगमका स्वरूप कहते है
अथ व्यंजनपर्याय नैगमनय अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायको गौण मुख्यरूपसे विषय करता है। जैसे धार्मिक पुरुषमें सुखपूर्वक जीवन पाया जाता है।
१. जीवित्व-अ०, मु०१।
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