Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 282
________________ २३२ परिशिष्ट प्रमाणेन गृहीतस्य वस्तुनोंऽशे विगानतः। संप्रत्ययनिमित्तत्वात्प्रमाणाच्चेन्नयोऽचिंतः॥११॥ नाशेषवस्तुनिर्णीतेः प्रमाणादेव कस्यचित् । ताइक्सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि 'सर्वदा ॥१२॥ किसीको प्रमाण न माननेपर अप्रमाणता अनिवार्य है और अप्रमाण न माननेपर प्रमाणता अनिवार्य है। दूसरी कोई गति नहीं है। इसका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि प्रमाणता और अप्रमाणताके सिवाय भी एक तीसरी गति है वह है-प्रमाणकदेशता-प्रमाणका एकदेशपना। प्रमाणका एकदेश न तो प्रमाण ही है,क्योंकि वह प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न नहीं है और न अप्रमाण ही है, क्योंकि प्रमाणका एकदेश प्रमाणसे सर्वथा भिन्न भी नहीं है। देश और देशीमें कथंचिद भेद माना गया है। __ शंका-प्रमाणसे उसका एकदेश जिस रूपसे भिन्न है उस रूपसे तो वह अप्रमाण है और जिस रूपसे अभिन्न है उस रूपसे प्रमाण है। समाधान- इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि नयका एकदेशसे प्रमाणपना और एकदेशसे अप्रमाणपना इष्ट है । नय सम्पूर्ण रूपसे प्रमाण नहीं है। जैसे समुद्रका एकदेश न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही है। शंका-प्रमाणकी तरह नय भी प्रमाण ही है, क्योंकि वह भी वस्तुके विषयमें पूरी तरह संवादक है । समाधान-नय वस्तुके विषयमें पूरी तरह संवादक नहीं है, एकदेश संवादक है ; क्योंकि वस्तुके एक ही अंशको जानता है। __ शंका-तब तो प्रत्यक्ष वगैरहको भी प्रमाण नहीं कहा जा सकता,क्योंकि वे भी वस्तुके एकदेशमें ही संवादक होते हैं ? समाधान-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंका विषय न केवल पर्याय है और न केवल द्रव्य है,किन्तु कुछ पर्याय विशिष्ट द्रव्य है। अतः वह सकलादेशी होनेसे प्रमाण है। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि जो सकलादेशी हो वही सच्चा है। ऐसा माननेपर तो विकलादेशी नयकी असत्यताका प्रसंग आता है। क्योंकि आगममें नयको विकलादेशी कहा है। किन्तु नय असत्य भी नहीं है, क्योंकि प्रमाणकी तरह नयसे जाने हुए वस्तुस्वरूपमें भी कोई बाधा नहीं आती। अतः विकलादेशी नयसे सकलादेशी प्रमाण पूज्य है। इसमें कोई विरोध नहीं है। शंकाकार कहता है कि प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एकदेशमें विवाद होनेपर उसके सम्यग्ज्ञानमें निमित्त होनेके कारण नय प्रमाणसे पूज्य है। किन्तु उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण रूपसे वस्तु का निर्णय प्रमाणसे ही होता है। किसी समीचीन नयमें भी इस प्रकारकी सामर्थ्य कभी मी सम्भव नहीं है। शंकाकारका कहना है कि प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके एकदेशमें यदि कोई विवाद खड़ा हो जाता है तो नयके द्वारा उस एक अंशको सम्यक् रीतिसे जान लेनेपर वह विवाद दूर हो जाता है, अतः नय प्रमाणसे पूज्य है। इसके समाधानमें ग्रन्थकारका कहना है कि प्रमाणके द्वारा सम्पूर्ण वस्तुका निर्णय हो जानेपर उसके एक अंशमें विवाद नहीं हो सकता, जिससे उसको दूर करनेके लिए नयकी आवश्यकता हो । प्रमाण सम्पूर्ण वस्तुके सम्बन्धमें उत्पन्न हुए विवादोंको दूर करने में समर्थ है और नय केवल उसके किसी एक देशके सम्बन्धमें उत्पन्न हुए विवादको ही दूर कर सकता है । अतः नय प्रमाणसे पूज्य नहीं हो सकता। १. 'सर्वथा' इत्यपि पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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