Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 281
________________ नयविवरणम् २३१ यथाशिनि प्रवृत्तस्य ज्ञानस्येष्टा प्रमाणता। तथांशेष्वपि किन्न स्यादिति मानात्मको नयः ॥७॥ तन्नांशिन्यपि निःशेषधर्माणां गुणतागतो। द्रव्याथिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः ॥८॥ धर्मर्मिसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विदः । प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः ॥९॥ 'नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणेकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः॥१०॥ का प्रसंग आता है । और ऐसी स्थितिमें कहीं भी वस्तु की व्यवस्था नहीं बन सकती। अतः वस्तुका एकदेश वस्तु या अवस्तु न होकर वस्तु-अंश है। उसमें कोई बाधक नहीं है । पुनः शंकाकार कहता है जैसे अंशी-वस्तुमें प्रवृत्ति करनेवाले ज्ञानको प्रमाण माना जाता है, वैसे ही वस्तुके अंशमें प्रवृत्ति करनेवाले अर्थात् जाननेवाले नयको प्रमाण क्यों नहीं माना जाता अतः नय प्रमाणस्वरूप ही है। शंकाकारका कहना है कि जैसे वस्तुका एकदेश न वस्तु है और न अवस्तु है, किन्तु वह वस्तुका अंश है। उसी तरह अंशी न वस्तु है और न अवस्तु है, वह केवल अंशी है। वस्तु तो अंश और अंशीके समूहका नाम है। अतः जैसे अंशको जाननेवाला ज्ञान नय है, वैसे ही अंशीको भी जाननेवाला ज्ञान नय है। यदि ऐसा नहीं है तो जैसे अंशोको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है.वैसे ही अंशको जाननेवाला ज्ञान भी प्रमाण होना चाहिए। और ऐसा माननेपर प्रमाणसे भिन्न नय सिद्ध नहीं होता। उक्त आशंकाका परिहार करते हैं उक्त आशंका ठीक नहीं है,क्योंकि जिस अंशी या धर्मी में उसके सब अंग या धर्म गौण हो जाते हैं उस अंशीमें मुख्यरूपसे द्रव्यार्थिक नयकी ही प्रवृत्ति होती है अर्थात् ऐसा अंशी द्रव्यार्थिक नयका विषय है,अतः उसका ज्ञान नय है। और धर्म तथा धर्मीके समूहरूप वस्तुके धर्मों और धर्मी दोनोंको प्रधानरूपसे जाननेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। अतः नय प्रमाणसे मिन्न है। - धर्म और धर्मीक समूहका नाम वस्तु है। जो ज्ञान धर्म या केवल धर्मीको ही मुख्य रूपसे जानता है वह ज्ञान नय है और जो दोनोंको ही मुख्य रूपसे जानता है वह प्रमाण है। पहले कह आये हैं कि प्रमाण सकलादेशी है, उसका विषय पूर्ण वस्तु है । और नय विकलादेशी है,उसका विषय या तो मुख्यरूपसे मात्र धर्मी होता है या मात्र धर्म होता है । जो धर्मोको गौण करके मात्र धर्मीको मुख्यतासे वस्तुको जानता है वह द्रव्यार्थिक नय है और जो धर्मीको गौण करके मुख्य रूपसे धर्मको ही जानता है वह पर्यायार्थिक नय है । तथा जो धर्म और धर्मी दोनोंकी मुख्यता करके सम्पूर्ण वस्तुको जानता है वह प्रमाण है । अतः प्रमाणसे नय भिन्न है । इसपर शंकाकारका कहना है कि यदि नय प्रमाणसे भिन्न है तो वह अप्रमाण हुआ। और अप्रमाण होनेसे मिथ्यज्ञानकी तरह नय वस्तुको जाननेका साधन कैसे हो सकता है ? इसका समाधान करते हैं नय न तो भप्रमाण है और न प्रमाण है। किन्तु ज्ञानात्मक है अत: प्रमाणका एकदेश है। इसमें किसी प्रकारका कोई विरोध नहीं है। शंकाकार कहता है कि यदि नय प्रमाणसे भिन्न है तो वह अप्रमाण ही हआ। क्योंकि प्रमाणसे भिन्न अप्रमाण ही होता है। एक ज्ञान प्रमाण भी न हो और अप्रमाण भी न हो, ऐसा तो सम्भव नहीं है। क्योंकि १. स्यात् प्रमाणात्मकत्वेऽपि प्रमाणप्रभवो नयः । विचारो निर्णयोपायः परीक्षेत्यवगम्यताम् ॥३॥ सिद्धिविनिश्चय, पृ० ६६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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