Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 243
________________ -३८२] नयचक्र १९३ सद्धाणणाणचरणं कुव्वतो तच्चणिच्छयो भणियो। णिच्छयचारी चेदा परदव्वं णहु भणइ मज्झं ॥३८१।। णिच्छयदो खलु मॉक्खो बंधो ववहारचारिणो जह्मा। तम्हा णिव्वुदिकामो ववहारं चयउ तिविहेण ॥३८२॥ उक्तं च एवं मिच्छाइट्ठी गाणी णिस्संसयं हवदि पत्तो । जो ववहारेण मम दव्वं जाणंतो अप्पयं कुणदि ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका पालन करनेवालेके ही तत्त्वका निश्चय कहा है । तत्त्वका निश्चय करनेवाला आत्मा परद्रव्यको अपना नहीं कहता है ॥३८॥ विशेषार्थ-परद्रव्यमें ममत्वभाव ही संसारका कारण है । यह ममत्वभाव अज्ञानीके ही होता है । और अज्ञानी वही है जिसे वस्तुतत्त्वका यथार्थबोध नहीं है । यह बोध केवल शास्त्रमूलक हो नहीं होता । शास्त्रोंको पढ़ने के पश्चात् भी मनुष्य परद्रव्योंसे ममत्वभाव रखता है। यह तो आन्तरिक प्रतीति होने पर जब जीव क्रमसे सम्यग्दर्शनादिकी ओर बढ़ता है.तभी धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों तत्त्वको प्रतीति होती जाती है, त्यों-त्योंममत्वभाव भी हटता जाता है । अतः परद्रव्यमें ममत्वभावको हटानेके लिए निश्चय दृष्टिको अपनानेकी आवश्यकता है। निश्चयदृष्टिसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और व्यवहारका अनुसरण करनेवालेके बन्ध होता है। इसलिए मोक्षके अभिलाषीको मन, वचन, कायसे व्यवहारको छोड़ना चाहिए ॥३८२।। _ कहा भी है-इस प्रकार मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव संसारका पात्र होता है-इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है। वह व्यवहारसे द्रव्य मेरा है ऐसा जानता हुआ उसे अपना मान लेता है। विशेषार्थ-निश्चय और व्यवहार दोनों ही यद्यपि नयपक्ष है, तथापि दोनोंमें बहुत अन्तर है । निश्चयनय शुद्धद्रव्यका कथन करता है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यका कथन करता है। चूंकि दोनों ही रूपसे द्रव्यको प्रतीति होती है, इसलिए दोनों ही नयोंका अस्तित्व है। किन्तु मोक्षमार्गमें निश्चयनय साधकतम है, क्योंकि हम शुद्ध होना चाहते हैं और शुद्धताका भान निश्चय नयसे ही सम्भव है क्योंकि वही शुद्धद्रव्यका निरूपक है। व्यवहारनय तो अशुद्धद्रव्यका ही प्ररूपक है। अतः उसको अशुद्ध नय कहते हैं। उदाहरणके लिए व्यवहारनय कहता है कि आत्मा द्रव्य कर्मोंका कर्ता और भोक्ता है। निश्चयनय कहता है कि आत्मा अपने रागादि भावोंका कर्ता और भोक्ता है। इन दोनों नयोंमें से निश्चयनय ही उपादेय है। क्योंकि जब जीव यह जानता है कि आत्मा अपने रागादि भावोंका ही कर्ता है और द्रव्यकर्म ही बन्धका कारण नहीं है,तब राग-द्वेष रूपी विकल्प जालके त्याग द्वारा रागादिका विनाश करनेके लिए अपनी शुद्ध आत्माकी भावना भाता है। उससे रागादिका विनाश होता है। रागादिका विनाश होनेपर आत्मा शुद्ध होता है। अतः शुद्धात्माका साधक होनेसे निश्चयनय ही उपादेय है। जो शुद्धद्रव्यका कथन करनेवाले निश्चयनयकी अपेक्षा न करके अशुद्ध द्रव्यका कथन करनेवाले व्यवहारनयके मोहमें पड़ जाता है, वह शरीर वगैरहमें 'यह मेरा है'- इस ममत्वभावको नहीं छोड़ता। और इसलिए शुद्धात्मपरिणतिरूप साधुमार्गको दूर ही से नमस्कार करके अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्गको ही अपनाता है। अतः अशुद्धनयसे अशुद्धआत्माका लाभ होता है । किन्तु जो अशद्धद्रव्यका कथन करनेवाले व्यवहारनयमें मध्यस्थ रहकर शुद्धद्रव्यका कथन करनेवाले निश्चयनयके १. 'एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण । णिच्छयणयासिदा पुण मणिणो पावंति णिव्वाणं' ॥२७२।। -समयसार । 'आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः । तस्यापि पराश्रितत्त्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एव चायं आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्, पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च'।-अमृतचन्द्रटीका । २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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