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आलापपद्धति
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शब्द-समभिरूद्वैवंमृताः प्रत्येकमेकैके नयाः । शब्दनयो यथा--दारा भार्या कल नम्, जलमापः । सममिरूढनयो यथा-गौः, पशुः । एवंभूतो नयो यथा-इन्दतीति इन्द्रः । उता अष्टाविंशतिर्नयभेदाः ।
उपनयभेदा उच्यन्ते-सद्भूतव्यवहारो द्विधा। शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा-शुद्धगुणशुद्धगुणिनोः शुद्धपर्याय-शुद्धपर्यायिणोदकथनम् । अशुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा-अशुद्धप्रणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायिणोर्मेदकथनम् । इति सद्भूतव्यवहारोऽपि द्वेधा ।
शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय ये तीनों नय एक-एक ही हैं, इनके भेद नहीं है । शब्दनय, जैसे दारा, भार्या और कलत्र तथा जल और आपः । समभिरूढनय जैसे गौ शब्दके अनेक अर्थो मेंसे रूढ़ अर्थ पशुको ही ग्रहण करना। एवंभूतनय, जैसे जो आनन्द करता है वह इन्द्र है। इस प्रकार नयके अट्ठाईस भेद कहे।
विशेषार्थ-जो नय लिंग, वचन, कारक आदिके भेदसे शब्दको भेदरूप ग्रहण करता है उसे शब्दनय कहते हैं। जैसे संस्कृत भाषामें दारा, भार्या और कलत्र शब्द स्त्रीके वाचक हैं किन्तु दारा शब्द पुल्लिग है, भार्या शब्द स्त्रीलिंग है और कलत्र शब्द नपुंसकलिंग है। अतः लिंग भेद होनेसे शब्दनय इन तीनों शब्दोंके अर्थको भेदरूप ही ग्रहण करता है। इसी तरह जल और आपः ये दोनों शब्द जलके वाचक है। किन्तु 'जलम' एक वचनका रूप है और 'आपः' शब्द नित्य बहवचनान्त है। अतः वचनभेद होनेसे शब्दनय इन दोनोंके अर्थोंको भी भेदरूप ही ग्रहण करता है। जो किसी शब्दके रूढ अर्थको ग्रहण करता है उसे समभिरूढ़नय कहते हैं। जैसे संस्कृत भाषामें 'गो' शब्दके ग्यारह अर्थ हैं किन्तु रूढ़ अर्थ बैल या गाय नामक पशु है। अतः समभिरूढ़नय उसी अर्थको ग्रहण करता है । जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ हो उस क्रियारूप प्रवृत्ति करते समय हो उस शब्दका प्रयोग उचित है ऐसा एवंभूतनयका मत है। 'इन्द्र' शब्द स्वर्गके स्वामीका बाचक है। उसका अर्थ होता है जो आनन्द करता है अतः जब स्वर्गका स्वामी आनन्द करता हो तभी उसे इन्द्र कहना उचित है। ये तीनों नय शब्दको प्रधानतासे वस्तुको ग्रहण करते हैं इसलिए इन्हें शब्दतय कहते हैं और इनसे पहलेके चार नयोंको अर्थनय कहते हैं। ऊपर द्रव्यार्थिकनयके दस भेद कहे हैं, पर्यायाथिकनयके छह भेद कहे हैं, नैगमनयके तीन भेद कहे हैं-संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनयके दो-दो भेद कहे हैं तथा शब्द आदि नय एक-एक हैं इन सबको जोड़नेसे १०+६+३+२+ २+२+१+१+ १ = २८ अट्ठाईस भेद होते हैं ।
उपनयके भेद कहते हैं। सद्भूत व्यवहारनयके दो भेद हैं। शुद्धसद्भूतव्यवहारनय जैसे-शुद्ध गुण और शुद्ध गुणीमें तथा शुद्ध पर्याय और शुद्धपर्यायवालेमें भेद करना । अशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय, जैसे, अशुद्धगुण और अशुद्ध गुणीमें तथा अशुद्ध पर्याय और अशुद्ध पर्यायीमें भेद करना। इस तरह सद्भूत व्यवहारनयके दो भेद हैं।
विशेषार्थ-गुण गुणीमें और पर्याय पर्यायीमें भेद करनेको सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। दोनों ही शुद्ध भी होते हैं और अशुद्ध भी होते हैं अतः सद्भूत व्यवहारनयके दो भेद हो जाते हैं । जैसे आत्म और ज्ञानमें या सिद्धजीव और सिद्ध पर्यायमें भेद करना शुद्ध सद्भूतव्यवहारनय है और संसारीजीव और मनुष्यादि पर्यायमें तथा संसारी आत्मा और उसके मतिज्ञानादि गुणोंमें भेद कथन करना अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है।
१. सर्वार्थसिद्धि ११३३ । २. 'स...."धा' नास्ति अ० क० ख० ग० घ० ज० प्रसिषु । ३. -नम् । यथा ज्ञानजीवयोः सिद्धपर्यायसिद्धजीवयोः ज०। ४. 'इ."धा' नास्ति आ० प्रतौ।
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