Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 268
________________ २१८ परिशिष्ट असद्भूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्यसद्भुतव्यवहारो यथा-परमाणुबहुप्रदेशीति कथनमित्यादि । विजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा-मूत मतिज्ञानं यतो मूतद्रव्येण जनितम् । स्वजातिविजात्यसद्भूतम्यवहारो यथा-ज्ञेयेर जीवेऽजोवे ज्ञानमिति कथनं ज्ञानस्य विषयत्वात् । इत्यसद्भूतव्यवहारस्त्रेधा। उपचरितासदभूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्युपचरितासभूतव्यवहारो यथा-पुत्रदारादि मम । विजात्युपचरितासद्भूत व्यवहारो यथा-वस्त्राभरणहेमरत्नादि मम । स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा-देशराज्यदुर्गाद मम । इत्युपचरितासद्भूतव्यवहारस्त्रेधा । सहभुवो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाः । गुण्यते पृथक्रियते द्रव्यं द्रव्यान्तराद्यैस्ते गुणाः । अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्पत्वम् । वस्तुनो मावो वस्तुत्वम् । सामान्यविशेषात्मक वस्तु । द्रव्यस्य भावो द्रव्यवम् । निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्या स्वभावविभावपर्यायान् द्रवति, द्रोष्यति अदुद्रवदिति द्रव्य॑म् । असद्भूतव्यवहारनयके तीन भेद हैं। स्वजाति असद्भूत व्यवहारनय, जैसे, परमाणु बहुप्रदेशी है इत्यादि कहना । विजाति असद्भूतव्यवहारनय, जैसे-मतिज्ञान मूर्त है क्योंकि मूर्तद्रव्यसे उत्पन्न होता है । स्वजाति विजाति असद्भूतव्यवहारनय, जैसे ज्ञेय जीव अथवा अजीवमें ज्ञान है ऐसा कहना क्योंकि वह ज्ञानका विषय है । इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनयके तीन भेद हैं। विशेषार्थ-अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भूत व्यवहारनय है । ऐसा आरोप यदि सजातीय पदार्थों में किया जाता है तो वह स्वजाति असद्भुत व्यवहारनय कहा जाता है । जैसे परमाणु अन्य परमाणुओंसे मिलनेपर बहुप्रदेशी कहलाता है अतः परमाणुको बहुप्रदेशी कहना स्वजाति असद्भूत व्यवहारनय है । विजातीय पदार्थों में इस प्रकारके आरोपको विजाति असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं, जैसे मतिज्ञान मूर्तपदार्थ इन्द्रियादिके निमित्तसे होता है अतः उसे मर्त कहना विजाति असद्भुत व्यवहारनय है। तथा जब अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका आरोप सजाति और विजाति पदार्थोंमें किया जाता है तो उसे सजाति विजाति असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। जैसे जीव और अजीव पदार्थ ज्ञानके विषय हैं इसलिए उन्हें ज्ञान कहना। यहाँ जीव ज्ञानके लिए स्वजातीय है और अजीव विजातीय है । उपचरित असद्भूतव्यवहारनयके तीन भेद हैं । स्वजाति उपचरित असद्भूतव्यवहारनय-जैसे पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं। (यहाँ पुत्र, स्त्री आदि सजातीय हैं उनको अपना कहना उपचारोपचार है इसीलिए यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका विषय है ) । विजाति उपचरित असद्भूतव्यवहारनय, जैसे वस्त्र, आभरण, स्वर्ण, रत्न आदि जड़रूप वस्तु मेरी है। स्वजाति विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारनय, जैसे-देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं ( यहाँ देश आदिमें जड़ और चेतन दोनों आते हैं )। इस प्रकार उपचरित असद्भूत व्यवहारनयके तीन भेद हैं। जो द्रव्यके साथ सदा रहते हैं उन्हें गुण कहते हैं और जो द्रव्यमें क्रमसे एकके-बाद एक आती-जाती हैं उन्हें पर्याय कहते हैं। जो एक द्रव्यको अन्य द्रव्योंसे पथक करते हैं वे गुण हैं (जैसे जीव पुद्गल आदिसे ज्ञान आदि गुणोंके कारण भिन्न है, और पुद्गल जीवादि द्रव्योंसे रूपादि गुणोंके कारण भिन्न है ) । अस्तिके भावको अस्तित्व कहते हैं। अस्तित्वका अर्थ है सत्ता। वस्तुके भावको वस्तुत्व कहते हैं और जो सामान्य १. 'अस""स्त्रधा' नास्ति ज० प्रती । २. विषयात् आ० अ० क. ख. ग. ज. मु.। ३. 'उप..."घा' नास्ति अ. क. ख. घ० ज० प्रतिषु । ४. पुत्राद्यहं मम वा . आ. क० ख० ग? ज । ५. 'इ'"धा' नास्ति भा० ज०। ६. सहभावा मु०। 'सहभुव जाणहि ताहं गुण कमभुव पज्जउ वुत्त ॥५७॥-प. प्रकाश । 'गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमवृत्तयः ।-न्यायविनिश्चय श्लोक ११५। ७. द्रव्याध अ. भा. क. स्व. ज.। ८. 'दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो ।। -पञ्चास्ति. गा०९। 'यथास्वं पर्याय यन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि'-सर्वाथ० ५।२। 'द्रवति द्रोष्यति अद्रवदिति वा द्रव्यम्'-लघीयस्यविवृ०, न्या० कु. पृ०६०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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