Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 277
________________ आलापपद्धति २२७ समभिरूढः । शब्दभेदेऽप्यर्थभेदोऽस्ति यथा शक इन्द्रः पुरन्दर इत्यादयः समभिरूढाः । एवं क्रियाप्रधानत्वेन मयत इत्येवंभूतः । शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ। अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः। भेदोपचारतया वस्तु व्यवदियत इति व्यवहारः । गुणगुणिनोः संज्ञादिभेदात् भेदक: सद्भूतव्यवहारः। अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भतव्यवहारः एवोपचारः, उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरितासद्भतव्यवहारः। गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः स्वभावस्वभाविनोः कारककारकिणोर्मेंदः सद्भूतव्यवहारस्यार्थः । द्रव्ये द्रव्योपचारः, पर्याये पर्यायोपचारः, गुणे गुणोपचारः, दव्ये गुणोपचारः, द्रव्ये पर्यायोपचारः, गुणे द्रव्योपचारः, गुणे पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः, पर्याये गुणोपचार इति 'नवविधोऽसद्भुतव्यवहारस्यार्थो द्रष्टव्यः । उपचारः पृथक् नयो नास्तीति न पृथक्कृतः । मुख्यामावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते । सोऽपि सम्बन्धाविनामावः, सश्लेषः सम्बन्धः, परिणामपरिणामिसम्बन्धः, श्रद्धा-श्रद्धेयसम्बन्धः, ज्ञानज्ञेयसम्बन्धः, चारित्रपर्यासम्बन्धश्चेत्यादिः सत्यार्थः असत्यार्थः सत्यासत्यार्थश्चेत्युपचरितासनतव्यवहारनयस्यार्थः । कहते हैं जो शब्दभेदसे अर्थभेद मानता है वह समभिरूढ़नय है। जैसे शक्र, इन्द्र और पुरन्दर शब्द इन्द्रके वाचक हैं,किन्तु इनका अर्थ भिन्न-भिन्न है। अतः ये तीनों शब्द इन्द्रके तीन धर्मोके वाचक हैं । जो क्रियाको प्रधानतासे वस्तुको ग्रहण करता है वह एवंभूतनय है। ( इन नयोंका पिछले विशेषार्थमें स्पष्ट किया है । वहां देखना चाहिए । ) शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिकनयके भेद हैं। अभेद और अनुपचाररूपसे वस्तुका निश्चय करना निश्चयनय है । और भेद तथा उपचाररूपसे वस्तुका व्यवहार करना व्यवहारनय है। गुण और गुणीमें संज्ञा आदिके भेदसे जो भेद करता है वह सद्भूतव्यवहारनय है। अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यमें आरोप करनेको असद्भूत व्यवहार कहते हैं । असद्भूतव्यवहार ही उपचार है । उपचारका भी उपचार जो करता है वह उपचरित असद्भूतव्यवहारनय है। गुण-गुणीमें, पर्याय-पर्यायोमें, स्वभाव-स्वभाववान्में और कारककारकवान्में भेद करना अर्थात् वस्तुतः जो अभिन्न हैं, उनमें भेदव्यवहार करना सद्भूतव्यवहारनयका अर्थ है। द्रव्यमें द्रव्यका उपचार, पर्यायमें पर्यायका उपचार, गुणमें गुणका उपचार, द्रव्यमें गुण का उपचार, द्रव्यमें पर्यायका उपचार, गुणमें द्रव्यका उपचार, गुणमें पर्यायका उपचार, पर्यायमें द्रव्यका उपचार, पर्यायमें गुणका उपचार, इस प्रकार असद्भूतव्यवहारका अर्थ नौ प्रकारका जानना चाहिए । उपचार नामका कोई अन्य नय नहीं है, इसलिए उसे अलगसे नहीं कहा है। मुख्यके अभावमें और प्रयोजन तथा निमित्तके होनेपर उपचार किया जाता है। वह उपचार भी अविनाभाव सम्बन्ध, संश्लेशसम्बन्ध, परिणाम-परिणामि सम्बन्ध, श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध, चारित्रचर्यासम्बन्ध इत्यादि सम्बन्धोंको लेकर होता है। इस तरह उपचरितासद्भूतव्यवहारनयका अर्थ सत्यार्थ, असत्यार्थ और सत्यासत्यार्थ होता है। १. 'शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्रः, पर्दारणात परन्दर इत्येवं सर्वत्र । सर्वार्थ०, तत्त्वार्थवा० १।३३। तत्त्वार्थश्लो० पृ० २७३। प्रमेयकमल पृ०६८०। २. येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायवीत्येवंभूतः । तत्क्रिया परिणतिक्षण एव स शब्दो युक्तो नान्यदेति । यदैवेन्दति तदेवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति'।-सर्वाथ, तत्त्वार्थवा० १।३३। तत्वाथ इलो० पृ. २७४ । प्रमेयकमल पृ० ६८० । 'कालकारकलिङ्गानां भेदाच्छब्दोऽर्थभेदकृत् । अभिरूढस्तु पर्यायः इत्थंभूतः क्रियाश्रयः ॥४४॥-लघीयस्त्रय । ३. अभेदोपचारतया ख. अभेदानुपचारितया ज०। ४. नवविधोपचार अस-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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