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परिशिष्ट द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । शुद्धद्रव्यमेवार्थ. प्रयोजनमस्येति शुद्धनग्यार्थिकः । अशुद्धद्रव्यमेव अर्थः प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिकः । सामान्यगुणादयोऽन्वयरूपेण द्रवति द्रव्यमिति व्यवस्थापयतीत्यन्वयद्रव्यार्थिकः । स्वदन्यादिग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति स्वदम्यादिग्राहक. । परद्रव्यादिग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति परद्रव्यादिग्राहकः । परममावग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति परममावग्राहकः ।
__ इति द्रव्यार्थिकस्य व्युत्पत्तिः।। पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । अनादिनित्यपर्याय एवार्थ प्रयोजनमस्येत्यनादिनित्यपर्यायार्थिकः । सादिनित्यपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति सादिनित्यपर्यायार्थिकः । शुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिकः । अशुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिकः ।
इति पर्यायार्थिकस्य व्युत्पत्तिः। नैकं गच्छतीति निगमः । निगमो विकल्पस्तत्र भयो नैगमः। अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रहः । संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवहियत इति व्यवहारः । ऋजु प्राञ्जलं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । शब्दात् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः शब्दनयः। परस्परेणाभिरूढः
द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक नय है । शुद्ध द्रव्य ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह शुद्धद्रव्यार्थिक है। अशुद्ध द्रव्य ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह अशुद्धद्रव्यार्थिक है। सामान्य गुण आदि को अन्वयरूपसे 'द्रव्य' 'द्रव्य' ऐसी व्यवस्था जो करता है वह अन्वय द्रव्याथिक है अर्थात् अविच्छिन्न रूपसे चले आते गुणोंके प्रवाहमें जो द्रव्यकी व्यवस्था करता है उसे ही द्रव्य मानता है वह अन्वय द्रव्यार्थिक है। जिसका अर्थ-प्रयोजन स्वद्रव्य आदिको ग्रहण करना है वह स्वद्रव्यादिग्राहक नय है। जिसका प्रयोजन परद्रव्य आदिको ग्रहण करना है वह परद्रव्यादिग्राहक नय है। और जिसका अर्थ-प्रयोजन परमभावको ग्रहण करना है वह परमभावग्राहक नय है।
___ इस प्रकार द्रव्यार्थिककी व्युत्पत्ति है। पर्याय ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है। अनादिनित्यपर्याय ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह अनादिनित्यपर्यायाथिकनय है। सादिनित्यपर्याय हो जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह सादि नित्यपर्यायार्थिकनय है । शुद्धपर्याय ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह शुद्धपर्यायाथिकनय है । अशुद्ध पर्याय ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह अशुद्ध पर्यायाथिक है। इस प्रकार पर्यायाथिककी व्युत्पत्ति है।
जो एकको नहीं जाता उसे निगम कहते हैं । निगमका अर्थ है-विकल्प । उससे जो हो उसे नैगम कहते हैं अर्थात् जो वस्तु अभी निष्पन्न नहीं हुई है, उसके संकल्पमात्रको जो वस्तुरूपसे ग्रहण करता है उसे नैगमनय कहते हैं । जो अभेदरूपसे समस्तवस्तुओंको संग्रह करके ग्रहण करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं। संग्रहनयके द्वारा गृहीत अर्थका भेदरूपसे व्यवहार करनेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं। जो सरल सीधा सूत्रपात करे अर्थात् केवल वर्तमान पर्यायको ही ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है । शब्द अर्थात् व्याकरणसे प्रकृति, प्रत्ययके द्वारा सिद्ध शब्दको ( ग्रहण करनेवाले नयको ) शब्द नय कहते हैं। परस्परमें अभिरूढ़को समभिरूढ़ १. द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसो द्रव्यार्थिकः । सर्वार्थ०१६। २. द्रव्यं द्रव्यमिति व्य-आ० ज० । ३. पर्याय अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः । -सर्वार्थः । ४. निगच्छन्त्यस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगमः । निगमे कुशलो भवो वा नैगम:-तत्त्वार्थवा०11३।२। 'नै गमः नैगमः इति निर्वचनात्'-अष्टसह. पृ० २८७ । 'निगमो हि संकल्पस्तत्र भवस्तत्प्रयोजनो वा नैगमः'। -प्रमेयकमल. पृ० ७६ । ५. 'स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तगृहणात् संग्रहः । सर्वार्थ० १॥३३॥ तत्त्वार्थवा.
॥३३। प्रमेयकमल• पृ० ६७७ । ६. 'संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः' । सर्वार्थ. १॥३३ । अष्टसह० पृ० २८७, प्रमेयक० पृ० ६७७ । ७. 'ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयते इति ऋजुसूत्रः' । -सर्वार्थ० १॥३३ । 'ऋजुं प्राञ्जलं वर्तमानक्षणमात्रं सूत्रयतीत्यर्जुसूत्रः ।'-प्रमेयकमल० पृ० १७॥
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