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परिशिष्ट
अनेकपक्षेऽपि तथा द्रव्याभावो निराधारत्वात् आधाराधेयामावाच्च । भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारवादर्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यमावः । अभेदपक्षेऽपि सर्वेषामेकत्वम्, सर्वेषामेकत्वेऽर्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्गाप्यमावः । मैव्यस्यैकान्तेन पारिणामिकत्वात् दन्यस्य द्रव्यान्तरत्वप्रसङ्गात् संकरादिदोषसंभवात् । संकर-व्यतिकर-विरोध-वैयधिकरणानवस्थासंशयाप्रतिपत्त्यमावाश्चेति । सर्वथाऽभाव्यस्यैकान्तेऽपि तथा शून्यताप्रसङ्गात् । स्वभावस्वरूपस्यैकान्तेन संसाराभावः । विभावपक्षेऽपि मोक्षस्याप्यभावः । सर्वथा चैतन्यमेवेत्युक्त सर्वेषां शुद्धज्ञानचैतन्यावाप्तिः स्यात् , तथा सति ध्यान-ध्येय-ज्ञान-ज्ञय-गुरु-शिष्याद्यभावः ।
सर्वथाशब्दः सर्वप्रकारवाची अथवा सर्वकालवाची अथवा नियमवाची वा अनेकान्तसापेक्षी वा। यदि सर्वप्रकारवाची सर्वकालवाची अनेकान्तवाची वा सर्वगणे पठनात् । सर्वशब्द एवंविधश्चेत्तर्हि सिद्धं नः समीहितम् । अथवा नियमवाची चेत्तर्हि सकलार्थानां तव प्रतीति: कथं स्यात् ? नित्यः, अनित्यः, एकः, अनेक:. भेदः. अभेदः कथं प्रतीति: स्यात् नियमितपक्षत्वात् ।
तथाऽचैतन्यपक्षेऽपि सकलचैतन्योच्छेदः स्यात् । मूर्तस्यैकान्तेनात्मनो मोक्षस्यानवाप्तिः स्यात् । सर्वथाऽमूर्तस्थापि तथाऽऽत्मनः संसारविलोपः स्यात् । एकप्रदेशस्यैकान्तेनाखण्डपरिपूर्णस्यात्मनोऽनेककार्य
सर्वथा अनेक माननेपर भी द्रव्यका अभाव हो जायेगा, क्योंकि उन अनेक रूपोंका कोई एक आधार सर्वथा अनेक पक्षमें नहीं बनता। तथा आधार और आधेयका अभाव होनेसे भी द्रव्यका अभाव हो जायेगा। सामान्य और विशेष में सर्वथा भेद माननेपर निराधार होनेसे विशेष कुछ भी अर्थक्रिया नहीं कर सकेंगे और अर्थक्रिया नहीं करनेपर द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा। सर्वथा अभेदपक्षमें भी सब एक हो जायेंगे और सबके एक होनेपर अर्थक्रियाका अभाव हो जायेगा। तथा अर्थक्रियाके अभावमें द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा। सर्वथा भव्य-होने के योग्य-माननेपर वस्तु सर्वथा पारिणामिक हो जायेगी और ऐसा होनेपर एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जायेगा। तब संकर, व्यतिकर, विरोध, वैयधिकरण, अनवस्था, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक आठ दोष आयेंगे। वस्तुको यदि सर्वथा अभव्य-होनेके अयोग्य-माना जायेगा तो शन्यताका प्रसंग आयेगा,क्योंकि जो होनेके सर्वथा अयोग्य है वह वस्तुरूप कैसे हो सकती है। सर्वथा स्वभावरूप मानने पर संसारका अभाव हो जायेगा, क्योंकि संसारदशा तो विभावरूप है। सर्वथा विभावरूप माननेपर मोक्षका भी अभाव हो जायेगा,क्योंकि मोक्ष तो स्वभावरूप है । सर्वथा चैतन्य ही है-ऐसा माननेपर सभीको शुद्धज्ञान और चैतन्यकी प्राप्ति हो जायेगी । और जब सभी शुद्धबुद्ध हो जायेंगे,तो ध्यान ध्येय, ज्ञान ज्ञेय, गुरु, शिष्य आदिका अभाव हो जायेगा।
'सर्वथा' शब्द सर्वप्रकारका वाचक है अथवा सर्वकालका वाचक है अथवा नियमवाचक है अथवा अनेकान्त सापेक्षका वाचक है। चूंकि 'सर्व' शब्दका पाठ सर्वगणमें है, इसलिए यदि वह सर्वकाल अथवा सर्व प्रकार अथवा अनेकान्तका वाचक है तो हमारा अभिमत सिद्ध होता है अर्थात् वस्तु एकरूप हो सिद्ध न होकर अनेकरूप भी सिद्ध होती है, क्योंकि सर्वथाका अर्थ सबकाल, सबप्रकार अथवा अनेक धर्मात्मक होता है । यदि सर्वथा शब्द नियमवाची है कि वस्तु उस विवक्षित एक धर्मरूप ही है, तो आपके मतमें नित्य अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद आदि समस्त अर्थोकी प्रतीति कैसे संभव है ? क्योंकि आप तो केवल एक नियत पक्षको ही स्वीकार करते हैं ।
तथा सर्वथा अचैतन्य पक्षको स्वीकार करने पर भी समस्त चेतन पदार्थोके विनाशका प्रसंग आता है। आत्माको सर्वथा मतिक मानने पर उसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं होगी। आत्माको सर्वथा अमर्तिक मानने पर संसारका ही लोप हो जायेगा। सर्वथा एक प्रदेशो मानने पर अखण्ड परिपूर्ण आत्मा अनेक कार्य नहीं कर
१. त्वेन अर्थ-क. ग०।२, -व: मेलापप्रसङ्गात् क० ग०। ३. भयस्यै-ग०। ४. ध्यानं ध्येयं ज्ञानं ज्ञेयं अ. भा. क. ख० ज०। ५. -नो न मोक्षस्यावाप्तिः अ० ख० ज०।-नो न मोक्षस्य प्राप्तिः क. ग० ।
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