Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 273
________________ आलापपद्धति २२३ कारित्व' एव हानिः स्यात् । सर्वथाऽनेकप्रदेशत्वेऽपि तथा तस्यानर्थकार्यकारित्वं स्वस्वभावशून्यताप्रसङ्गात् । शुद्धस्यैकान्तेनात्मनो न कर्ममळकळकावलेपः सर्वथा निरञ्जनत्वात् । सर्वथाऽशुद्धेकान्तेऽपि तथात्मनो न कदाचिदपि शुद्धस्वभावप्रसङ्गः स्यात् तन्मयत्वात् । उपचरितैकान्तपक्षेऽपि नात्मज्ञता संभवति नियमितपक्षत्वात् । तथात्मनोऽनुपचरितपक्षेऽपि परज्ञतादीनां विरोधः स्यात् । नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः । तच्च सापेक्षसिद्ध्यर्थं "स्यान्नर्य मिश्रितं कुरु ॥९॥ स्वद्रव्यादिग्राह केणास्तिस्वभावः । परद्रव्यादिग्राहकेण नास्तिस्वभावः । उत्पादव्यय गौणत्वेन सत्ताग्राहकेण नित्यस्वभावः । केनचित् पर्यायार्थिकेनानित्यस्वभावः । भेदकल्पना निरपेक्षेणैकस्वभावः । अन्वयद्रव्यार्थिकेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् । सद्भूतव्यवहारेण गुणगुण्यादिभिर्भेदस्वभावः । भेदकल्पनानिरपेक्षेण गुणगुण्यादिभिरभेदस्वभावः । परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभावः । शुद्धाशुद्ध परमभावग्राहकेण चेतनस्वभावो जीवस्य । असद्भूतव्यवहारेण कर्मनो कर्मणोऽपि चेतनस्वभावः । परमभावग्राहकेण कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभावः । जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणा चेतनस्वभावः । परमभावग्राहकेण कर्मनो कर्मणोमूर्तस्वभावः । जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तस्वभावः । परमभावग्राहकेण पुद्गलं विहाय 'इतरेषामूर्तस्वभावः । पुद्गलस्योपचारादपि नास्त्यमूर्तत्वम् । सकेगा । तथा आत्माको सर्वथा अनेक प्रदेशी मानने पर भी वह अर्थक्रिया नहीं कर सकेगा और उसके स्वभाव शून्यताका भी प्रसंग प्राप्त होगा । आत्माको सर्वथा शुद्ध मानने पर कर्ममलरूपी कलंकसे, वह लिप्त नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह सर्वथा मलरहित है । आत्माको सर्वथा अशुद्ध मानने पर कभी भी वह शुद्धस्वभाववाला नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह सर्वथा अशुद्ध स्वभाववाला है । सर्वथा उपचरित पक्षको स्वीकार करनेपर आत्मा आत्मज्ञ नहीं हो सकेगा, क्योंकि आपको उपचरितपक्ष ही इष्ट है और उपचरित पक्षमें अनुपचरित पक्ष सम्भव नहीं है । तथा सर्वथा अनुपचरित पक्षको हो स्वीकार करनेपर आत्मा परका ज्ञाता नहीं हो सकेगा, क्योंकि निश्चयनय ( अनुपचरित पक्ष ) से आत्मा केवल ( उपचरितपक्ष ) परको जानता है । आत्माको जानता है और व्यवहारनयसे इस प्रकार प्रमाणके द्वारा नाना स्वभावोंसे युक्त द्रव्यको जानकर सापेक्ष सिद्धिके लिए उसमें नयोंकी योजना करनी चाहिए । आगे वही नययोजना कहते हैं । स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य अस्तिस्वभाव है । परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा नास्तिस्वभाव है । उत्पाद और व्ययको गौण करके सत्ताकी मुख्यता से ग्रहण करनेवाले नयको अपेक्षा द्रव्य नित्य है । किसी पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य अनित्य स्वभाव है । भेदकल्पना निरपेक्ष नयकी अपेक्षा द्रव्य एक स्वभाव है । अन्वयग्राही द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा एक होते हुए भी द्रव्य अनेक स्वभाव है । सद्भूतव्यहारनयसे गुण - गुणी आदिकी अपेक्षा द्रव्य भेदस्वभाव है । भेद कल्पना निरपेक्ष नयकी अपेक्षा गुण-गुणी आदि रूपसे अभेदस्वभाव है । परमभाव के ग्राहक नयकी अपेक्षा जीवद्रव्य भव्य या अभव्यरूप पारिणामिक स्वभाव है । शुद्ध या अशुद्ध परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा जीवद्रव्य चेतन स्वभाव है । असद्भूतव्यवहारनयसे कर्म और नोकर्म भी चेतनस्वभाव है, किन्तु परमभाव ग्राहक नयको अपेक्षा कर्म और नोकर्म अचेतन स्वभाव है । असद्भूतव्यवहारनयसे जीव भी अचेतनस्वभाव है । परमभावग्राहक नयकी अपेक्षा कर्म नोकर्म मूर्तस्वभाव है । असद्भूतव्यवहार नयसे जीव भी मूर्तस्वभाव है । परमभावग्राही नयको अपेक्षा पुद्गलको छोड़कर शेष सब द्रव्य अमूर्त स्वभाव हैं तथा पुद्गल उपचारसे भी अमूर्तिक नहीं है । १. - त्वमेव ज० । २. आत्मनः । ३. अशुद्धस्वभावमयत्वात् । ४. द्रव्यम् । ५. कथञ्चित् प्रकारेण । ६. न्नयैर्मि- क० ख० ग० । ७. नेक द्रव्यस्व-अ० आ० क० ख० ग० ज० । ८. जीवधर्माधर्माकाशकालानाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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