Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 269
________________ आलापपद्धति २१९ सद्द्द्रव्यलक्षणम् । सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतीति सत् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । प्रमेयस्य भावः प्रमेयत्वम् । प्रमाणेन स्वपरस्वरूपपरिच्छेद्यं प्रमेयम् । I भगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम् । सूक्ष्मा वागूँगोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगम प्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः । सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ ४ ॥ प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वम्-अविभागिपुद्गलपरमाणुनाऽवष्टब्धत्वम् । चेतनस्य भावश्चेतनत्वम् । चैतन्यमनुभवनम् । चैतन्यमनुभूतिः स्यात् सा क्रियारूपमेव च । क्रिया मनो-वचः-कायेष्वन्विता वर्तते ध्रुवम् ॥५॥ अचेतनस्य भावोऽचेतनत्वम् । अचैतन्यमननुभवनम् । मूर्तस्य भावो मूर्तस्वं रूपादिमत्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तस्वरूपादिरहितत्वम् । इति गुणानां व्युत्पत्तिः । ܪ और विशेषरूप होती है वह वस्तु है । द्रव्यके भावको द्रव्यत्व कहते हैं । अपने-अपने प्रदेश समूहोंके द्वारा अखण्डरूपसे जो स्वाभाविक और वैभाविक पर्यायोंको प्राप्त करता है, प्राप्त करेगा और प्राप्त कर चुका है वह द्रव्य है अर्थात् द्रव्य त्रिकालावस्थायी नित्य होते हुए भी परिणमनशील है । द्रव्यका लक्षण सत् है, जो अपने गुण पर्यायोंमें व्याप्त है वह सत् है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्तको सत् कहते हैं । प्रमेयके भावको प्रमेयत्व कहते हैं और प्रमाणके द्वारा जाने गये स्व और परको प्रमेय कहते हैं अर्थात् जो प्रमाण ज्ञानके द्वारा जाना जाता है वह सब प्रमेय है । अगुरुलघु गुणके भावको अगुरुलघुत्व कहते हैं । अगुरुलघु नामक गुण सूक्ष्म हैं, वचनके अगोचर हैं, उनके सम्बन्धमें कुछ कहना शक्य नहीं हैं, वे प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्यमें वर्तमान रहते हैं और आगम प्रमाणके द्वारा ही माने जाते हैं । ( कहा भी है ) — जिन भगवान्‌के द्वारा कहा गया तत्त्व सूक्ष्म है, युक्तियोंसे उसका घात नहीं किया जा सकता । उसे आज्ञासिद्ध मानकर ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जिनदेव अन्यथा ( जो जैसा नहीं है वैसा ) नहीं कहते हैं । अर्थात् जिनदेवके द्वारा कहे गये आगमको प्रमाण मानकर अगुरुलघु गुणोंको स्वीकार करना चाहिए । प्रदेशके भावको प्रदेशत्व कहते हैं । प्रदेशत्वका अर्थ होता है-क्षेत्रत्व, जिसका दूसरा विभाग नहीं सकता ऐसे पुद्गल परमाणुके द्वारा रोके गये क्षेत्रको प्रदेश कहते हैं । चेतनके भावको चेतनत्व कहते हैं । अनुभवनका नाम चैतन्य है । चैतन्य अनुभूतिरूप है और अनुभूति क्रियारूप है । तथा क्रिया निश्चय ही मन, वचन और कायमें अन्वित है । अचेतनके भावको अचेतनत्व कहते हैं । अचैतन्यका अर्थ है- अनुभूतिका न होना । मूर्तके भावको मूर्तत्व कहते हैं । मूर्तत्वका अर्थ है - रूप, रस आदिसे सहित होना । अमूर्तके भावको अमूर्तत्व कहते हैं । अमूर्तत्वका अर्थ है - रूपादिसे रहित होना । इस प्रकार गुणोंकी व्युत्पत्ति हुई । १. तश्वाथसूत्र ७।२९ । २ - तस्वार्थ ० ५।३० । ३. ५. स्यात् सत्क्रिया क० ख० ग० । ६. -मेव हि ज० । अमूर्तत्वं रूपा - ज० । Jain Education International अवाक् गोचराः ग० ज० । ४. थाभाषिणो ज० । ७. मूर्तत्वम् । मूर्तत्वं रूपा - ज० ॥ ८. -त्वम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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