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१९६ द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० ३८९ - णिज्जियसासो णिपफंदलोयणो मुक्कसयलवावारो।
जो एहावत्थगओ सो जोई णत्थि संदेहो ॥३८९॥ ध्यातुरात्मनोऽन्तः सामग्री प्रत्यक्षतास्वरूपं तस्यैव ग्रहणोपायं चाह
संवेयणेण गहिओ सो इह पच्चक्खरूवदो फुरइ । तं सुयणाणाधीणं सुयणाणं लक्खलक्खणवो ॥३९०॥ लक्खमिह भणियमादा झेओ तब्भावसंगदो सोवि ।
चेयण तह उवलद्धी दंसण णाणं च लक्खणं तस्स ॥३९१॥ विशेषार्थ-दीपकके प्रकाशको तरह आत्मा भी संकोच विकासशील है, यह ऊपर कहा हो है। कि आत्मा ज्ञानस्वभाव है और स्वभाव स्वभाववान्के विना नहीं रहता; न स्वभाववान स्वभावके विना रहता है इसलिए जितना परिमाण आत्माका होता है, उतना ही ज्ञानका है और जितना परिमाण ज्ञानका है, उतना ही आत्माका है। दोनोंमें से कोई एक दूसरेसे छोटा या बड़ा नहीं है। यदि ऐसा न माना जाये तो अनेक दोष आते हैं। यदि ज्ञानको बड़ा और आत्माको छोटा माना जाये तो आत्मासे बाहर जो ज्ञान होगा वह अचेतन हो जायेगा क्योंकि चैतन्य स्वरूप आत्माके साथ उसका तादाम्त्य सम्बन्ध नहीं है। यदि ज्ञानसे आत्माको बड़ा माना जायेगा,तो ज्ञानरहित-आत्मा घट-पटके समान अज्ञानी हो जायेगा। इसलिए आत्माको ज्ञानप्रमाण और ज्ञानको आत्माप्रमाण ही मानना चाहिए।
आगे योगीका स्वरूप बतलाते हैं
जिसका श्वासोच्छ्वास अत्यन्त मन्द हो, नेत्र निश्चल हों, समस्त व्यापार छूट गये हों, जो इस अवस्थामें लीन है वह योगी है, इसमें सन्देह नहीं है ॥३८९॥
विशेषार्थ-यह ध्यानावस्थाका चित्रण है । पर्वत गुफा, नदीका तट, श्मशान भूमि, उजड़ा हुआ उद्यान, या शून्य मकानमें, जहां सर्प, मृग, पशु-पक्षी और मनुष्यों की पहुँच न हो, न अधिक शीत हो, न अधिक गर्मी हो, न अधिक वायु हो, वर्षा और धूप भी न हो, सारांश यह कि चित्तको चंचल करनेका कोई बाह्यकारण न हो, ऐसे स्थानपर साफ भूमिपर जिसका स्पर्श अनुकूल हो, कंकड़, पत्थर आदि न हों, सुखपूर्वक पालथी लगाकर बैठे। शरीरको सीधा तथा निश्चल रखे। अपनी गोदमें बायीं हथेलीके ऊपर दक्षिण हथेलीको रखे । आँखे न एकदम बन्द हों और न एकदम खुली हों, अर्धनिमीलित हों, दांतपर दांत स्थिर हो, मुख थोड़ा जमा हुआ हो, मध्य भाग सीधा हो, कमर झुकी न हो, गर्दनमें गम्भीरता हो, मुखका वर्ण प्रसन्न हो, दृष्टि निमेषरहित स्थिर और सौम्य हो, निद्रा, आलस्य, कामविकार, राग, रति, अरति, हास्य, शोक, द्वेष और ग्लानिका लेश भी न हो, श्वास-उच्छ्वास बहुत मन्द हो, इस प्रकारसे अभ्यस्त योगी नाभिके ऊपर हृदय, मस्तक या किसी अन्य अंगमें मनका नियमन करके प्रशस्त ध्यान करता है। ऐसा ध्यानी पुरुष योगी है इसमें सन्देह नहीं है।
आत्माका ध्यान करनेवालेको आन्तरिक सामग्री, प्रत्यक्षताका स्वरूप तथा उसके ग्रहणका उपाय बतलाते हैं
स्वसंवेदनके द्वारा गृहीत वह आत्मा ध्यानमें प्रत्यक्षरूपसे झलकता है । वह श्रुतज्ञानके अधीन है और श्रुतज्ञान लक्ष्य और लक्षणसे होता है। यहां लक्ष्य आत्मा है, वह आत्मा अपने ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंके साथ ध्येय-ध्यान करने योग्य है। उस आत्माका लक्षण चेतना या उपलब्धि है।वह चेतना दर्शन और ज्ञानरूप है ॥३९०-३९१।।
१. सब्भाव-अ० क० ख० ज०म० ।
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