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आलापपद्धति
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प्रत्येकं त्रयो गुणाः । अन्तस्थाश्चत्वारो गुणाः स्वजात्यपेक्षया सामान्यगुणाः, विजात्यपेक्षया त एव विशेषगुणः । इति गुणाधिकारः ।
गुणविकाराः' पर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात् । अगुरुलघुविकाराः स्वभावपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिहानिरूपाः । अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यात भागवृद्धिः, संख्यात भागवृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः, असंख्यात गुणवृद्धि:, अनन्तगुणवृद्धि:, इति षड्वृद्धिः । तथा अनन्तभागहानिः असंख्यात भागहानिः, संख्यात भागहानिः, संख्यातगुणहानिः असंख्यातगुणहानि:, अनन्तगुणहानि:, इति षड् हानिः । एवं षड्वृद्धिहानिरूपा द्वादश ज्ञेयाः ।
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स्थितिहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व ये तीन विशेष गुण हैं । आकाश द्रव्यके अवगाहन हेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व ये तीन विशेष गुण हैं । काल द्रव्यके वर्तनाहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व ये तीन विशेष गुण हैं । उक्त सोलह विशेष गुणोंमेंसे अन्तके चार गुण — चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व अपनी जातिकी अपेक्षासे तो सामान्य गुण हैं, किन्तु विजातिकी अपेक्षासे वे ही विशेष गुण होते हैं । जैसे चेतनत्व सब जीवोंमें पाया जाता है, अतः वह सब जीवोंकी अपेक्षा सामान्य गुण है; किन्तु जीव द्रव्यके सिवाय अन्य किसी भी द्रव्यमें नहीं पाया जाता, अतः अन्य विजातीय द्रव्योंकी अपेक्षासे वह विशेष गुण है । इसी तरह मूर्तत्व सब पुद्गलों में पाया जाता है, अतः पुद्गलका वह सामान्य गुण है, किन्तु पुद्गलके सिवाय अन्य द्रव्यमें न पाया जानेसे अन्य अमूर्तिक द्रव्योंको अपेक्षासे वही पुद्गलका विशेष गुण है । अचेतनत्व सब अचेतन द्रव्यों में पाया जाता है, इसलिए सामान्य गुण है, किन्तु जीव द्रव्यकी अपेक्षा वही विशेष गुण है । अमूर्तत्व सब अमूर्तद्रव्यों में पाया जाता है, इसलिए सामान्य गुण है, किन्तु मूर्त पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा वही विशेष गुण है ।
इस प्रकार गुणका अधिकार समाप्त हुआ ।
गुण के विकारको पर्याय कहते हैं । पर्याय दो पर्याय । अगुरुलघु गुणके विकारको स्वभावपर्याय कहते हैं । और छह हानिरूप |
प्रकारकी होती है - स्वभावपर्याय और विभावस्वभावपर्याय बारह प्रकार की है— छह वृद्धिरूप
अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धियाँ हैं । और अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनन्तगुणहानि ये छह हानियाँ हैं। इस प्रकार छह वृद्धि और छह हानिरूप बारह प्रकारकी स्वभावपर्याय होती है ।
विशेषार्थ - गुणोंमें जो परिणमन होता है उसे पर्याय कहते हैं । जैसे ज्ञान गुणका परिणमन घटज्ञान, पटज्ञान आदि रूपसे होता है या मन्द, तीव्र होता है । पर्यायके दो प्रकार हैं-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । जो पर्याय परनिरपेक्ष होती हैं वे स्वभाव पर्याय हैं। छहों द्रव्योंमें जो अर्थपर्याय होती हैं उन्हें स्वभाव पर्याय कहते हैं। वे पर्याय अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं, वाणी और मनके अविषयभूत होती हैं । आगम प्रमाणसे ही उन्हें स्वीकार किया जाता है । प्रत्येक द्रव्यमें एक अगुरुलघुनामक गुण माना गया है। उसी गुणके कारण प्रत्येक द्रव्यमें षड्हानिवृद्धियाँ सदा होती रहती हैं। वे सब स्वभावपर्याय हैं ।
१. 'के गुणाः, के पर्यायाः । अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणः पर्यायाः । तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः । घटज्ञानं पटज्ञानं क्रोधो मानो गन्धो वर्णस्तीव्रो मन्द इत्येवमादयः । - सर्वार्थसिद्धि ५।३८ । २. 'णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा । कम्मोपाधिविवज्जियपज्जया ते सहावमिदि भणिदा ॥ १५॥ | नियमसार ।
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