Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 262
________________ परिशिष्ट विभावपर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्याया अथवा चतुरशीतिलक्षाश्च । विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याया नरनारकादिकाः । विभावगुणव्यञ्जनपर्याया मत्यादयः । स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाश्चरमशरीरात् किञ्चिन्न्यूनसिद्धैपर्यायाः । स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याया अनन्तचतुष्टयरूपा जीवस्य । पुद्गलस्य तु द्व्यणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः । रसरसान्तर गन्धगन्धान्तरादिवि मावगुणव्यञ्जनपर्यायाः । अविभागिपुद्गल परमाणुः स्वमात्रद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः । वर्णगन्धरसैकैकमविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुणन्यञ्जनपर्यायाः । ४ ● अनाद्यनिधने द्रव्ये स्त्रपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जलें ॥१॥ इति पर्यायाधिकारः । गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । २१२ चार प्रकारकी मनुष्य, नारकी आदि पर्याय अथवा चौरासी लाख योनियाँ विभाव पर्याय हैं । मनुष्य, नारकी, देव, तिर्यंच आदि विभावद्रव्यव्यंजन पर्याय हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान विभावगुणव्यंजन पर्याय हैं । जिस शरीरसे मुक्ति प्राप्त होती है उस अन्तिम शरीरसे कुछ कम सिद्ध जीवका आकार होता है, वह स्वभाव द्रव्यव्यंजनपर्याय है । जीवके अनन्तचतुष्टय, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य स्वभावगुणव्यंजन पर्याय है । पुद्गलकी द्वयणुक - दो परमाणुओंके संयोगसे बना स्कन्ध आदि विभाव द्रव्यव्यंजन पर्याय है । उसकी रससे रसान्तर, गन्धसे अन्यगन्ध रूप अवस्था विभाव गुणव्यंजन पर्याय है। पुद्गलकी एक शुद्ध परमाणु रूप अवस्था स्वभावद्रव्यव्यंजन पर्याय है गन्ध और परस्पर में अविरुद्ध दो स्पर्श यथा स्निग्ध रूक्ष में से स्वभावगुणव्यंजन पर्याय हैं । । उस शुद्ध परमाणुमें एक वर्ण, एक रस, एक एक और शीत उष्णमें से एक ये पुद्गलकी अनादि अनन्त द्रव्य में प्रति समय उसकी अपनी पर्याय उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं, जैसे जलमें जलकी लहरें उत्पन्न होती और नष्ट होती हैं ॥ १ ॥ विशेषार्थ - जो पर्याय परसापेक्ष होती है उसे विभावपर्याय कहते हैं। विभावपर्याय केवल जीव और पुद्गल द्रव्यों में ही होती है, क्योंकि दोनों द्रव्य परस्परमें मिलकर विभावरूप परिणमन कर सकते हैं । स्वभावसे विपरीतको विभाव कहते हैं । पर्यायके स्वभाव और विभाव भेद स्व-परसापेक्षताको लेकर हैं । पर्याय के दो भेद हैं- अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । अर्थपर्याय तो छहों द्रव्यों में होती है । वह सूक्ष्म और क्षणक्षण में उत्पन्न होती और नष्ट होती है और व्यंजन पर्याय स्थूल होती है। वचनके द्वारा उसका कथन किया जा सकता है, वह नश्वर होते हुए भी स्थिर होती है । उसमें ही स्वभाव और विभाव भेद होते हैं तथा द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय रूप भेद होते हैं । जैसे संसारी जीवोंकी नर, नारक आदि पर्याय विभावद्रव्य व्यंजन पर्याय है और उनके मति आदि ज्ञान विभाव गुणव्यंजन पर्याय है, क्योंकि जीवकी नर, नारक आदि दशा स्वभावदशा नहीं है, विभावदशा है । इसी प्रकार उसके ज्ञानकी मति, श्रुत आदि रूपदशा भी स्वभावदशा नहीं है, विभावदशा है | मुक्ति प्राप्त होने पर सिद्ध जीवके आत्मप्रदेश जिस शरीरसे मुक्ति प्राप्त हुई है, कुछ १. विभावार्थपर्यायाः षट्धा मिथ्यात्व - कषाय-राग-द्वेष- पुण्यपापरूपाध्यवसायाः । चतुविधा नरनारकादिका विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याया भवन्ति अथवा चतुरशीतिलक्षाश्च -आ० । २. स्वभावादन्यथाभवनं विभावस्तच्च तद्द्रव्यं च तस्य व्यञ्जनानि लक्षणानि चिह्नानि वा तेषां पर्यायाः परिणमनानि विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः । स्थूलो व्यञ्जनपर्यायो वाग्गम्यो नश्वरः स्थिरः । सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायाश्चार्थगोचराः । ३ 'दीहत्तं बाहल्ल चरिमभवे जस्स जारिसं ठाणं । तत्तो तिभागहीणं ओगाहण सव्वसिद्धाणं । - तिलोयपण्णति ९।१०। 'तनोरायामविस्तारौ प्राणिनां पूर्वजन्मनि । तत्त्रिभागो न संस्थानं जाते सिद्धत्वपर्यये । - त्रैलोक्यदीपक । ४. माणवः ग० । ५. पर्यायाः ग० । ६. परस्परविरोधको शीतस्निग्धौ शीतरूक्षी उष्णस्निग्धो उष्णरूक्षी । ७. 'द्रव्यात् स्वस्मादभिन्नाश्च व्यावृताश्च परस्परम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ।' न्या० कु० च० पृ० ३७० उत । ८. इत्यतोऽग्रे मुद्रितप्रतिषु श्लोको दृश्यते - धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः । व्यञ्जनेन तु सम्बद्ध द्वावन्य जीवपुद्गलौ ।' -९ त० सू० ५। ३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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