Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 264
________________ २१४ नयभेदा उच्यन्ते--- परिशिष्ट पिच्छयववहारणया मूलिमभेया णयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेऊ देव्वयपज्जत्थिया मुणह ॥३॥ व्यार्थिकः, पर्यायार्थिकः, नैगमः, संग्रहः, व्यवहारः, ऋजुसूत्रः, शब्दः समभिरूढः एवंभूत इति नव नयोः स्मृताः । उपनयाश्च कथ्यन्ते । नयानां समीपा उपनयाः । सद्भूतव्यवहारः असद्भूतव्यवहारः उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपनयास्त्रेधा । इदानीमेतेषां भेदा उच्यन्ते । द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः । कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, संसारी जीवः सिद्धसदृक् शुद्धात्मा । उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्ध द्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् । विशेषार्थ - द्रव्य, गुण, पर्याय और स्वभावको जाननेका उपाय सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण कहते हैं । सम्यग्ज्ञान पाँच हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान । इनमें से मति और श्रुत परोक्ष कहलाते हैं, क्योंकि वे इन्द्रिय, मन, प्रकाश, उपदेश आदि परपदार्थोंकी सहायतासे होते हैं । जो ज्ञान अन्यको सहायता के विना केवल आत्मासे होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एकदेश स्पष्ट होनेसे देशप्रत्यक्ष हैं । ये केवल रूपी पदार्थोंको और कर्म से सम्बद्ध जीवोंको ही जानते हैं । केवलज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है । वह त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको युगपत् जानता है । इन पाँचों ज्ञानोंमें से श्रुतज्ञानके ही भेद नय हैं। प्रमाणसे गृहीत सम्पूर्ण वस्तुके एक अंशको जाननेका नाम नय है । प्रमाण में वस्तु के सब अंशोंकी प्रधानता रहती है, किन्तु नय जिस अंशकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करता है केवल वही अंश मुख्य और शेष अंश गौण रहते हैं । यही प्रमाण नयमें भेद है । मति, अवधि और मनः पर्यय ज्ञानके द्वारा गृहीत वस्तुके अंशमें नयोंकी प्रवृत्ति नहीं है, क्योंकि नय समस्त देश और कालवर्ती पदार्थोंको विषय करते हैं और मति आदि ज्ञान समस्त देश और कालवर्ती पदार्थोंको जाननेमें असमर्थ हैं । केवलज्ञान यद्यपि त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको जानता है, किन्तु केवलज्ञान स्पष्ट जानता है और नय स्पष्ट नहीं जानते । इसलिए श्रुतज्ञानके ही भेद नय हैं । श्रुतज्ञान ज्ञानात्मक भी है और वचनात्मक भी है। नय भी ज्ञानात्मक और वचनात्मक हैं। जब ज्ञाता स्वयं जानता है तो उस ज्ञानको स्वार्थ कहते हैं और जब दूसरोंको बतलाता है, तो उस वचनात्मक श्रुतज्ञानको परार्थ कहते हैं । दूसरोंको समझानेका साधन वचन ही है । और नयोंके भेद कहते हैं सब नयोंके मूलभूत भेद निश्चयनय और व्यवहारनय हैं । निश्चयके साधनमें हेतु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय हैं, ऐसा जानो ॥२॥ द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ये नौ नय हैं । अब उपनयोंको कहते हैं । जो नयोंके समीप होते हैं अर्थात् नय न होते हुए भी नयके तुल्य होते हैं उन्हें उपनय कहते हैं । उपनय तीन हैं—सद्भूत व्यवहारनय, असद्भूत व्यवहारनय और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय । अब इन नयोंके भेद कहते हैं । द्रव्यार्थिकनयके दस भेद हैं । १ कर्मोंपाधि निरपेक्ष ( कर्मकी उपाधि की अपेक्षा न करनेवाला ) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय — जैसे संसारी जीव सिद्धके समान शुद्ध आत्मा है । २ उत्पाद Jain Education International १. पज्जयदव्वत्थियं मुणह || १८२ ॥ द्रव्यस्वभाव प्रकाश नयचक्र । 'दो चेव मूलिमणया भणिया दव्वत्थपज्जयत्थगया । अण्णं असंखसंखा ते तब्भेया मुणेयव्वा ॥ ११ ॥ ' - नयचक्र । २. 'नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः । तस्वार्थसूत्र १|३३| ३ 'नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः अविभ्राड्भाव संबन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ॥ १०७॥ ' - आप्तमी० । 'उक्तलक्षणो द्रव्यपर्यायस्थानः संग्रहादिर्नयः तच्छाखा प्रशाखात्मोपनयः । - अष्टशती, अष्टसहस्री । ४. उपचरिता नया ग० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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