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[ गा० ३८३ -
द्रव्यस्वभावप्रकाशक दृष्टान्तद्वारेण व्यवहारस्य निश्चय-लेपे दर्शयति'
जइवि चउट्ठयलाहो सिद्धाणं सण्णिहो हवे अरिहो।
सो विय जह संसारी णिच्छयलेवो तहेव ववहारो॥३८३॥ निश्चयाराधकस्य फलं सामग्री चाह
मोत्तण बहि विसयं विसयं आदा वि वट्टदे काउ। तइया संवर णिज्जर मॉक्खो वि य होइ साहुस्स ॥३८४॥ रुद्धक्ख जिदकसायो मुक्कवियप्पो सहावमासेंज्ज । झायउ जोई एवं णियतच्चं देहपरिचत्तं ॥३८५।।
द्वारा मोहको दूर करके 'न मैं किसीका हैं और न कोई मेरा है' इस प्रकार परके साथ अपने स्वामित्व
भी त्यागकर 'मैं शद्ध ज्ञान स्वरूप हैं। इस प्रकार आत्माको हो आत्मरूपसे ग्रहण करके आत्मध्यानमें लीन होता है,वही शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनयसे हो शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ( प्रवचनसार गाथा २१९७-९९)।
आगे दृष्टान्तके द्वारा व्यवहारको निश्चयका लेप बतलाते हैं
यद्यपि अनन्तचतुष्टयसे युक्त अर्हन्त सिद्धोंके समान है, फिर भी वे संसारी कहे जाते हैं उसी तरह व्यवहार निश्चयका लेप है ॥३८॥
विशेषार्थ-व्यवहारको निश्चयका लेप कहा है । लेपसे वह वस्तु छिप जाती है जिसपर लेप किया जाता है । उसी तरह व्यवहार निश्चयको ढांक देता है। जैसे अर्हन्त भी सिद्धोंके समान हैं, अनन्तचतुष्टयसे युक्त हैं, फिर भी वे संसारी कहे जाते हैं क्योंकि अभी वे संसारदशारूप व्यवहारसे सर्वथा मुक्त नहीं हुए है। उनकी निश्चयदशापर व्यवहारका लेप अभी वर्तमान है। आत्माके परमार्थस्वरूप पर जो यह व्यवहारका लेप चढ़ा है कि अमुकजीवके इतनी इन्द्रियाँ हैं, इतने शरीर हैं, अमुक गति है, अमुक वेद है, कषाय है,यह सब उसपर लेप ही तो है । यह लेप दूर हो जाये तो आत्मा तो आत्मा ही है । चावलके ऊपर जो तुष रहता है,वह चावलको ढाँके रहता है। उसके दूर हुए विना चावलके दर्शन नहीं होते। जो मूढ़ तुषको ही चावल समझ लेता है और उसे कूटता-पीटता है, उसे चावलको प्राप्ति नहीं होती। इसी तरह जो व्यवहारको ही परमार्थ मानकर उसीमें रमे रहते हैं, उन्हें परमार्थको प्राप्ति नहीं होती।
आगे निश्चयकी आराधनाका फल और सामग्री कहते हैं
जब साधु बाह्य विषयको छोड़कर और आत्माको हो विषय बनाकर वर्तता है,तब उसके संवर, निर्जरा और मोक्ष होता है ॥३८४॥ इन्द्रियोंका निरोध करके, कषायोंको जीतकर, विकल्पको छोड़कर तथा स्वभावको प्राप्त करके योगीको देहसे भिन्न आत्मतत्त्वका ध्यान करना चाहिए ॥३८५॥
विशेषार्थ-निश्चयनयके द्वारा जाने गये शुद्धआत्मतत्त्वका ध्यान करनेसे नवीन कर्मोंका आस्रव रुकता बद्ध कर्मोकी निर्जरा होती है और इस तरह मोक्षकी प्राप्ति होती है। यह निश्चयकी आराधनाका फल है। किन्तु निश्चयकी आराधनाके लिए इन्द्रियोंको वशमें रखना कषायोंको जीतना और संकल्पविकल्पोंको छोड़ना जरूरी है। इनके विना आत्मध्यान होना संभव नहीं है। अतः मुमुक्षु भव्यजीव सम्यग्दृष्टि होकर शुद्धात्माकी प्राप्तिके लिए पहले उसे जानता है, पश्चात् व्रत-नियमादिके द्वारा आत्मप्राप्तिमें बाधक विषय-कषायों बचनेके लिए प्रयत्न करता है। अतः आत्मार्थी भव्य जीवको आत्मध्यानमें तत्पर
१. दृष्टान्तद्वारेण निश्चयस्य व्यवहारलोपं दर्शयति व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपं मिथ्यारूपं च दर्शयतिअ. क. ख० ज०।-व्यवहारस्य निश्चयलोपं-मु०। दृष्टान्तद्वारेण निश्चयस्य व्यवहारलोपं दर्शयति आ० । २. संसारी तह मिच्छा भणिय ववहारो अ० क. ख. ज. मु०।
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