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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
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नुभूतिरूप निश्चय मोक्षमार्गको तो मानते हैं, परन्तु निश्चयमोक्षमार्गके अनुष्ठानकी शक्ति न होने से निश्चयका साधक शुभाचरण करते हैं, वे सरागसम्यग्दृष्टि होते हैं, वे परम्परासे मोक्षप्राप्त करते हैं । तथा जो शुद्धात्माके अनुष्ठानरूप मोक्षमार्गको और उसके साधक व्यवहारमोक्षमार्ग मानते हैं, किन्तु चारित्रमोहके उदयसे शक्ति न होनेसे शुभ और अशुभ आचरण नहीं करते । वे यद्यपि शुद्धात्म भावना सापेक्ष शुभाचरण करनेवाले पुरुषोंके समान तो नहीं होते, तथापि सरागसम्यक्त्व से युक्त व्यवहार सम्यग्दृष्टि होते हैं और परम्परासे मोक्षको प्राप्त करते हैं । इस तरह सराग अवस्थामें अनादिकालसे भेदवासित बुद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनयसे भिन्न साध्यसाधनभाव का अवलम्बन लेकर सुखपूर्वक मोक्षमार्गका साधन करते हैं । अर्थात् यह श्रद्धा करने योग्य है, और यह श्रद्धा करने योग्य नहीं है, यह श्रद्धा करनेवाला है और यह श्रद्धान है, यह जानने योग्य है और यह जानने योग्य नहीं है, यह ज्ञाता है और यह ज्ञान है, यह आचरण करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं है, यह आचरण करनेवाला है और यह आचरण है। इस प्रकार कर्तव्य, अकर्तव्य, कर्ता और कर्मका भेद करके सराग सम्यग्दृष्टि धीरे-धीरे मोहको नष्ट करनेका प्रयत्न करते हैं । कदाचित् अज्ञानवश या कषायवश शिथिलता आनेपर दोषानुसार प्रायश्चित्त लेते हैं और इस तरह भिन्न विषयवाले श्रद्धान ज्ञानचारित्रके द्वारा भिन्न साध्यसाधनभाववाले अपने आत्मामें संस्कार आरोपित करके कुछ-कुछ विशुद्धि प्राप्त करते हैं । जैसे धोबी साबुन लगाकर, पत्थरपर पछाड़कर और निर्मल जलमें धोकर मलिन वस्त्रको उजला करता है, उसी प्रकार सरागसम्यग्दृष्टि भेदरत्नत्रयके द्वारा अपने आत्मामें संस्कारका आरोपण करके थोड़ी-थोड़ी शुद्धि करता है । आशय यह है कि वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये जीवादि पदार्थ विषयमें सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान ये दोनों तो गृहस्थों और साधुओंमें समान होते हैं । साधु आचार शास्त्रमें विहित मार्गके द्वारा प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके योग्य पंचमहाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, छह आवश्यक आदिरूप चारित्रका पालन करता है और गृहस्थ उपासकाध्ययनमें विहित मार्गके द्वारा पंचम गुणस्थानके योग्य दान, शील, पूजा, उपवास आदि रूप तथा दार्शनिक, व्रतिक आदि ग्यारह प्रतिमारूप चारित्रका पालन करता है, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है । व्यवहार मोक्षमार्ग भिन्न साध्य - साघनरूप है और स्वपर प्रत्यय पर्यायके आश्रित है अर्थात् व्यवहार श्रद्धान-ज्ञान-चारित्रके विषय आत्मासे भिन्न होते हैं, क्योंकि व्यवहार श्रद्धानका विषय नव पदार्थ हैं। व्यवहार ज्ञानका विषय अंगपूर्व है और व्यवहार चारित्रका विषय मुनि और गृहस्थका आचार है । यहाँ साध्य तो पूर्ण शुद्धतारूपसे परिणत आत्मा है और उसका साधन व्यवहारनयसे उक्त भेदरत्नत्रयरूप परावलम्बी विकल्प है । इस प्रकार व्यवहारनयसे साध्य - साधन भिन्न कहे हैं । इसीसे उसे स्वपर प्रत्यय पर्यायाश्रित कहा है। क्योंकि द्रव्यार्थिकनयके विषयभूतः शुद्ध आत्मस्वरूपके आंशिक अवलम्बन के साथ तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और पंचमहाव्रतादि रूपचारित्र होता है । अतः यह सब स्वपर हेतुक हैं । किन्तु जैसे घी स्वभावसे शीतल होता है, किन्तु अग्निके संयोगसे जलाता भी है । वैसे ही शुद्ध आत्माके आश्रित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षके कारण हैं; किन्तु पराश्रित होनेपर के बन्ध के कारण भी होते | यदि ज्ञानी भी किंचित् अज्ञानवश यह मानता है कि भगवान् अर्हन्तकी भक्तिसे मोक्ष होता है, तो उसे भी रागका लेश होनेसे आगममें परसमयरत कहा है। फिर जो निरंकुश रागमें फँसे हैं उनका तो कहना ही क्या है ? अतः सर्वप्रथम विषयानुराग छोड़कर उसके पश्चात् गुणस्थानोंकी सीढ़ियोंपर चढ़ते हुए रागादि से रहित निज शुद्ध आत्मामें स्थिर होकर अर्हन्त आदिके विषय में भी रागका त्याग विधेय है । राग ही सब अनथका मूल है । अस्तु, इस तरह यह स्वपरहेतुक पर्यायके आश्रित भिन्न साध्यसाधन भाववाले व्यवहारनयकी अपेक्षासे पालन किया जानेवाला मोक्षमार्ग एकाग्रमनवाले जीवको ऊपर-ऊपरको शुद्ध भूमिकाओं में अभेदरूप स्थिरता उत्पन्न करता हुआ निश्चय मोक्षमार्गरूप वीतरागचारित्रका साधन होता है । इस प्रकार सरागचारित्र और वीतरागचारित्र में कथंचित् अविनाभाव है । सरागचारित्र में सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रमें और आत्मा में भेदबुद्धि रहती है । धीरे-धीरे यह भेदबुद्धि मिटकर साध्य और साधन दोनों एक हो जाते हैं ।
[ गा० ४०४
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