Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 241
________________ -३७९ ] नयचक्र तस्यैव संसारहेतुप्रकारं विपरीतान्मोक्ष हेतुत्वमाह - भेदुवारे जझ्या वट्टदि सो विय सुहासुहाघीणो । तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा ॥ ३७७॥ जया तव्विवरीए आदसहावाहि संठियो होदि । तया चि ण कुव्वदि सहावलाहो हवे तेण ॥ ३७८ ॥ अभेदानुपचरितस्वरूपं तदेव निश्चयं तस्याराधकस्य तत्रैव वर्तनं चाह - 'णादाणुभूइ सम्मं णिच्छयणाणं तु जाणगं तस्स । सुहअसुहाण णिवित्ति चरणं साहुस्स वीयरायस्स ॥३७९ ॥ वही जीव-भाव कैसे संसारका और मोक्षका कारण होता है, यह बतलाते हैं - जब वह जीव शुभ और अशुभ भावों के अधीन होकर भेदोपचार में प्रवर्तता है, तब यह कर्मों का कर्ता होता है और उससे वह संसारी कहा जाता है । किन्तु जब उसके विपरीत आत्मस्वभाव में स्थित होता है, तब वह कुछ भी नहीं करता और उससे उसे स्वरूपकी प्राप्ति - मोक्ष होता है ||३७७-३७८ ॥ १९१ विशेषार्थ — जीव और अजीव यदि ये दोनों एकान्तसे अपरिणामी होते तो जीव और अजीव ये दो ही पदार्थ होते । संसार और मोक्षकी प्रक्रिया ही न होती । यदि ये दोनों एकान्तसे परिणामी और तन्मय रूप होते तो दोनों मिलकर एक ही पदार्थ होता, दो न रहते । इसलिए ये दोनों कथंचित् परिणामी हैं । अर्थात् यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयसे स्वरूपको नहीं छोड़ता, तथापि व्यवहारसे कर्मोदयवश रागादिरूप औपाधिक परिणामको ग्रहण करता है । यद्यपि रागादिरूप औपाधिक परिणामको ग्रहण करता है, तथापि स्फटिककी तरह अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता । इस तरह कथंचित् परिणामीपना होनेपर बहिरात्मा मिध्यादृष्टि जीव विषयकषायरूप अशुभोपयोग परिणामको करता है । और कभी-कभी चिदानन्दैक स्वभाव शुद्धताको छोड़कर भोगोंकी चाहवश शुभोपयोगपरिणामको करता है, तब वह द्रव्यभावरूप पुण्य, पाप, आस्रव और बन्धका कर्ता होता है । किन्तु सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा ज्ञानी जीव मुख्यरूपसे निश्चयरत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोगके बलसे वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर निर्विकल्प समाधिरूप परिणाम करता है, तब वह उस परिणामसे द्रव्यभावरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष पदार्थका कर्ता होता है । जब निर्विकल्प समाधिरूप परिणाम नहीं होते, तो विषय कषायसे बचने के लिए अथवा शुद्धात्मभावनाकी साधना के लिए ख्याति, पूजा, लाभ, भोगकी आकांक्षारूप निदानबन्ध न करके शुद्धात्मलक्षण स्वरूप अर्हन्त, सिद्ध, शुद्धात्माके आराधक आचार्य, शुद्धात्माके व्याख्याता उपाध्याय, और शुद्धात्माके साधक साधुओंके गुणस्मरण आदि रूप शुभोपयोग परिणामको करता है । इस प्रकारका शुभोपयोग भी परम्परासे मोक्षका निमित्त होता है, किन्तु भोगाकांक्षारूप निदान के साथ किया गया शुभोपयोग भी अशुभोपयोगकी तरह संसारका ही कारण होता है। एकमात्र शुद्धोपयोग ही वस्तुतः मोक्षका कारण है । उसीके लिए गृहवास छोड़कर, समस्त परिग्रहको त्यागकर जिनदीक्षा ली जाती है । उसके बिना निश्चयरत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग तथा निर्विकल्पसमाधि संभव नहीं है । आगे कहते हैं कि अभेद और अनुपचरित स्वरूप ही निश्चय है । उसका आराधक उसीमें प्रवर्तन करता है आत्मा की अनुभूति निश्चय सम्यक्त्व है । उसका जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और शुभ तथा अशुभसे निवृत्ति वीतरागी साधुका निश्चयचारित्र है || ३७९ || १. जाणगभावो अणुहव दंसण णाणं च जाणगं तस्स । अ० क० ख० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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