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-३७४ ] नयचक्र
__ १८९ णाणं दसण चरणं खाइय सम्मत्त पंचलद्धीओ।
'खाइयभेदा णेया णव होदि हु केवला लद्धी॥३७३॥ निजपारिणामिकस्वभावे यावन्नात्मबुद्धया श्रद्धानादिकं तावदोषमाह
सेद्धाणणाणचरणं जाव ण जीवस्स परमसब्भावे ।
ता अण्णाणी मूढो संसारमहोदहिं भमइ ॥३७४॥ सम्यक्त्व जिसे वेदकसम्यक्त्व भी कहते हैं, एक प्रकार का है। क्षायोपशमिक चारित्र भी एक प्रकार का है। यहाँ उसके सामायिक आदि भेदों की विवक्षा नहीं है। विरताविरत भी एक ही प्रकार का है। इस तरह ये अठारह भाव क्षायोपशमिक हैं । सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयक्षय तथा देशघाति स्पर्द्धकों के उदय और आगामी काल में उदय आनेवाले निषेकों के सदवस्थारूप उपशम से जीव का जो गुणांश प्रकट होता है वह क्षायोपशमिक कहलाता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाति स्पर्द्धकों के उदय में जो तत्त्वार्थ- ' श्रद्धानरूप भाव होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन बारह कषायों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम से तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक देशघाति स्पर्धक के उदय में तथा नवनोकषायों के यथायोग्य उदय में आत्मा का जो निवृत्ति रूप परिणाम होता है,वह क्षायोपशमिक चारित्र है। अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय, संज्वलनकषाय, और नव नोकषायों के यथायोग्य उदय में जो एकदेशनिवृत्ति रूप और एकदेशप्रवृत्ति रूप परिणाम होता है,उसे विरताविरत या संयमासंयम चारित्र कहते हैं
आगे क्षायिकभाव के नौ भेद कहते हैं
क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकचारित्र, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिकवीर्य ये नौ क्षायिकभाव के भेद हैं। इन्हें नौ केवललब्धि कहते हैं ॥३७३॥
विशेषार्थ-प्रतिपक्षी कर्मका विनाश होनेपर आत्मामें जो निर्मलता प्रकट होती है,उसे क्षायिकभाव कहते हैं । ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका क्षय होनेपर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट होते हैं। दानान्तरायका. अत्यन्त क्षय होनेपर दिव्यध्वनिके द्वारा अनन्त प्राणियोंका उपकारकारक क्षायिक अभयदान होता है। लाभान्तरायका अत्यन्त क्षय होनेपर भोजन न करनेवाले केवली भगवान्के शरीरको बल देनेवाले जो परम शुभ सूक्ष्म नोकर्मवृद्गल प्रतिसमय केवलीके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, जिनके कारण केवलीका परम औदारिक शरीर भोजनके बिना कुछकम एक पूर्वकोटि वर्ष तक बना रहता है,वह क्षायिक लाभ है। भोगान्तराय का अत्यन्त क्षय होनेसे अनन्त भोग प्रकट होता है। उसीके फलस्वरूप सुगन्धित पुष्पवृष्टि , मन्द सुगन्धपवनका बहना आदि होता है। उपभोगान्तराय कर्मका अत्यन्त क्षय होनेसे अनन्त उपभोग प्रकट होता है। उसीके फलस्वरूप सिंहासन, तीनछत्र, भामण्डल आदि होते हैं । वीर्यान्तराय कर्मका अत्यन्त क्षय होनेपर अनन्तवीर्य प्रकट होता है। मोहनीय कर्मकी उक्त सात प्रकृतियोंका क्षय होनेपर क्षायिक सम्यक्त्व होता है और समस्त मोहनीय कर्मका क्षय होनेपर क्षायिक चारित्र प्रकट होता है । इन नौ क्षायिक भावोंको नौ कैवललब्धि भी कहते हैं।
आगे कहते हैं कि जबतक अपने पारिणामिक स्वभावमें आत्मबुद्धिसे श्रद्धान आदि नहीं है, तबतक दोष है
___जबतक जीवका अपने परमस्वभावमें श्रद्धान, ज्ञान और आचरण नहीं है, तबतक वह मूढ़ अज्ञानी संसार-समुद्र में भटकता है ॥३७॥ १. 'ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च'।-तत्त्वार्थ० २।४। २. दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं० ।-पुरुषार्थसि. २१५ श्लो० ।
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